Kanuram Deogam ki jivni-कानुराम देवगम
Kanuram Deogam ki jivni:-हँसमुख चेहरा, साफ रंग, कद लगभग पाँच फुट नौ इंच, आँखों में चमक ए लिये हुए, काँख में एक हाथ से छाता दबाए, कमर में सफेद धोती, थोड़ा ऊँचा ही बाँधे, तन पर कुरता और होंठों पर स्व-रचित ‘हो’ भाषा का गीत गुनगुनाते हुए। प्रतिदिन के दिनचर्या के अनुसार दुंबीसाई गाँव में सुबह के सैर या अपने इष्ट मित्र, सहकर्मी सेवानिवृत्त जिला स्कूल के अध्यापक घनश्याम पुरति से मिलने अपने निवास से लतरसाइ (नीचे टोली) जाने के क्रम में जब कोई चिर-परिचित बच्चा या बुजुर्ग रास्ते में मिलता, तो वे स्वतः अपना वॉल्यूम (आवाज) तेज कर ऐनक के ऊपर से उन्हें घूरते हुए और रिझाने की मुद्रा में मुखातिब होते। चुकुड्-चुकुड् (शरीर को कुछ आगे-पीछे लहराते हुए) झूमते। ये थे कानुराम देवगम। तब उनकी उम्र कोई अस्सी या इक्कासी की रही होगी।
कानुरामजी का जन्म 31 जुलाई, 1897 ई. को मानकी परिवार में हुआ था। कानुरामजी छह भाई और तीन बहनों में सबसे बड़े थे। उनकी बहनों के नाम बेलो, जोंगा और जानकी तथा भाइयों का नाम दुर्गाचरण, शुभनाथ, पुंगी, मुती और दुबीराम था। सबसे छोटी जानकी, जिनकी शादी भरभरिया में हुई, अभी जीवित हैं। कानु के पिता का नाम दुलु देवगम और माताजी का नाम मेन्जो बांडरा (देवगम) था। उनके पिता दुलु देवगम अविभाजित बिहार उड़ीसा विधान परिषद् के माननीय सदस्य थे। उनको अंग्रेज सरकार ने राय साहब की उपाधि दी थी। इस प्रकार वे राय साहब दुलु मानकी के नाम से जाने जाते थे। घर पर बाबू बनने की सारी सुविधाएँ उपलब्ध रहने के बावजूद कानुरामजी हमेशा आदिवासी जीवन-शैली के करीब रहे। उनको हो गानों का शौक बचपन से ही था। कानुरामजी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड चाईबासा से, जबकि मैट्रिक की पढ़ाई जिला स्कूल चाईबासा से पूरी की। उनके छोटे भाई शुभनाथ देवगम पढ़ने में तेज थे, पर वे गीत-संगीत या गानों की दुनिया से कुछ दूर ही रहते। कॉलेज के लिए जहाँ छोटे भाई शुभनाथ ने कटक (उड़ीसा) के रेवेन्सा कॉलेज को चुना, वहीं कानूराम उच्च शिक्षा के लिए संत कोलंबस कॉलेज, हजारीबाग गए। कॉलेज के दिनों में उन्होंने दो-एक कविताएँ लिखी। ‘नया जन्मभूमि’, ‘दिसम सेवा’ जो हाल के दिनों में प्रकाशित हो पाई। ‘दिसम सेवा’ कविता में आह्वान है- “सिंहभूम नासा रेव जनमे लेना सिंह लेकान पाईटिव रिकाये गेया। जनम नेंगा दिसम नेलागा किलि मिलिन सेवा सिंगारेया।” अर्थात् “हम सिंहभूम की धरती पर जन्में सिंह की भाँति काम करें। आओ जन्म देनेवाली दिसम का विभिन्न प्रकार से श्रृंगार करें।” (रचना काल 10 जून, 1918) दुंबीसाई मानकी विरासत के आधे से अधिक जमीन पर आज का चाईबासा शहर बसा हुआ है, पर दुबोसाई अब भी एक गाँव है। उसे चाईबासा म्युनिसिपलिटी से अलग ही रखा गया है। दुबीसाई अपने आप में आदिवासी पारंपरिक प्रशासनिक ईकाई का मुख्य गढ़ जो है। यह चाईबासा से पूरब ‘सिकूरसइ-तोल गोःए’ जाने के रास्ते में बांदापाड़ा रेलवे लाइन फाटक से सटा हुआ है। इस गाँव से दुलु मानकी के यहाँ कोल्हान इलाके के तत्कालीन मानकी लोगों का आना-जाना लगातार रहा, जो आज तक पारिवारिक रिश्तों की तरह बना हुआ है। दुबोसाई ने कई नामचीन हो मध्यमवर्गीय महानुभावों को आश्रय दिया है। पूर्णचंद्र बिरुवा (1971-1995) ‘टुंबीसाई गाँव के स्व. अंतु हेंब्रम के भाड़े के मकान में’ रहते थे। उस जमाने में दुबीसाई गाँव हो बुद्धिजीवियों का जमावड़ा हुआ करता था। सन् 1898 में एक पुस्तकालय की स्थापना की गई थी, जिसका उद्घाटन मोहनदास करमचंद गांधी ने किया था। अब वह पुस्तकालय नहीं है, पर छंद की कुछ पुस्तकें लंका बिरुवाजी ने सँभालकर रखी हुई हैं। लंकाजी वैसे लगड़ा रकुंडिया के हैं, किंतु वे अधिकांशतः दुम्बीसाई-बांदापाड़ा में ही रहे। उन दिनों पढ़ने-लिखनेवाले विद्यार्थियों के लिए दुम्बीसई गाँव में अच्छा वातावरण बना हुआ था।
शिक्षा पूरी करने के बाद कानूरामजी ने सबसे पहली नौकरी इंस्पेक्टर ऑफ के रूप में शुरू की। इसके बाद से सन् 1910 ई. को स्थापित जिला स्कूल, चाईबासा में सह-शिक्षक नियुक्त हुए, फिर 1951 ई. तक वे इसी स्कूल में सहायक प्रधानाध्यापक रहे। जिला स्कूल कोल्हान क्षेत्र के कई मेधावी छात्रों का स्कूल रहा है। पूर्णचंद्र बिरुवा उनमें से एक थे, जो एस.पी.जी. मिशन स्कूल से मिडिल की पढ़ाई पूरी करने के बाद जिला स्कूल गए। “मिडिल स्कूल रेयः पड़व सेंया हतावकेड्ते मसमत 1931 रे जिला स्कूल चाईबासा रे हाई स्कूल रेयः पड़व किन एयोबकेडा। जिला स्कूल रे बारिया हॉस्टेल ताईकेना-मियडू दो हिंदू हॉस्टेल, मियड् दो आदिवासी हॉस्टेल। पूर्णचंद्र तिकिन हिंदू हॉस्टेल रेकिन ताइकेना ओण्डोः एनायतेगे कि पड़व ताइकेना। जिला स्कूल रे इमिता दनङ कानेराम देवगम तिकिन प्रिंसिपलकिन ताइकेना ओण्डोः आकिन पूर्णचंद्र के पड़व मनते एसु किन काजि देंगा लिःया।” अर्थात् ” सन् 1931 में (पूर्णचंद्रजी) मिडिल स्कूल की पढ़ाई पूरी कर जिला स्कूल में पढ़ाई के लिए गए। जिला स्कूल में दो हॉस्टेल थे-एक हिंदू हॉस्टेल, दूसरा आदिवासी हॉस्टेल। पूर्णचंद्र बिरुवा हिंदू हॉस्टेल में रहे और वहीं से पढ़ाई किए। जिला स्कूल में उन दिनों कानुराम देवगमजी प्रिंसिपल थे और पूर्णचंद्र बिरुवा पढ़ें, इसके लिए उन्होंने बहुत सहयोग किया।” इस प्रकार कानुरामजी छात्रों व उनके अभिभावकों को खूब सहयोग करते थे। विद्यार्थियों के बीच वे लोकप्रिय अध्यापक के रूप में जाने जाते थे। उन्हीं के एक शिष्य लादुरा सवैयाँ, (बिहार प्रशासनिक सेवा से सेवानिवृत्त) के अनुसार-” कानुरामजी एक संजीदा शिक्षक व अभिभावक रहे हैं। जिला स्कूल में दाखिले के उपरांत छात्रावास में जगह नहीं मिलने की बात ज्यों ही कानुरामजी को मालूम हुई तो उन्होंने स्वयं संपर्क किया और पूछा था हो गाना आता है तुम्हें ? फिर उनको हो भाषा में कई अच्छे-अच्छे गीत सुनाए। फिर क्या था, उन्होंने तुरंत अपने छात्रावास में जगह दिलाई।” इससे कानुरामजी की आत्मीयता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। बाद में उन्होंने लादुराजी को अपने ही गार्जियनशिप में रखा। लादुरा सावैयाँ पढ़ाई के साथ-साथ गाने और बजाने दोनों में बहुत ही शौकीन व कुशल थे। “मरंग गड़ा तोलेन लगिङ्, ‘सोबोनरका योजना’ मेनाः, अबुरे ओते हसा हंगांए सेनोः चबायना। अबुरे ओते हसा मिसिंग सेनोः चबायना ॥ दिरिना दारु चबाना तना, ओतेना हसा चबाना तना, नुतु सुमाइ ‘दिसुम’ मिसिंग सरेः उरानतन ॥” अर्थात् “बड़ी नदी पर बाँध बनाने के लिए, सुवर्णरखा योजना है, बंधु हमारे लिए खेत-जमीन नहीं रहा। पेड़, खेत-जमीन खत्म हो रहे हैं, बंधु सिर्फ नाम का ‘दिसुम’ बचा हुआ है। बहनो सिर्फ नाम का ‘दिसुम’ बचा है।” कानुरामजी जिला स्कूल, चाईबासा के हॉस्टल सुपरिटेंडेंट भी रहे।
‘साधु पुकुरिया’ मानकी को घोड़े बाँधने के लिए अस्तबल की जमीन दुबीसाई में मिली हुई थी। पुकुरिया गाँव चाईबासा से दक्षिण-पूर्व कोई 34-35 किमी. दूर मंझारी थानांतर्गत अवस्थित है। मानकी कोल्हान कोर्ट-कचहरी में अपना निर्णय देने के क्रम में थे। कालक्रम में दुबीसाई मानकी की ओर से रहने आदि की व्यवस्था कर दिए जाने पर पढ़ने-लिखने के इच्छुक पुकुरिया के विद्यार्थी दुबीसाई गाँव में डेरा डालते। उन दिनों पुकुरिया गाँव खूबसूरत लड़कियों के लिए जाना जाता था। कानु अपनी टोली को जीप में लेकर साधु पुकुरिया तक जा पहुँचे। पुकुरिया मानकी का रुतबा भी कम नहीं था। वे काफी सख्त मिजाज के थे, परंतु आने-जाने के उसी क्रम में कानुरामजी की एक शादी 1918 ई. में पुकुरिया में हुई- विश्वनाथ सवैयाँ की पुत्री लक्ष्मी सवैयाँ से। लक्ष्मी से उनको तीन लड़कियाँ और दो लड़के हुए। लड़कियों के नाम सावित्री, नागेश्वरी और ललिता एवं लड़कों के नाम हरीश और बोधनाथ रखे गए। बोधनाथ की बाल्यावस्था (दस महीने) में ही माँ लक्ष्मी की मृत्यु 1942 में हो गई। आगे चलकर परिवार को सँभालने के लिए कानुरामजी ने 1952 के आस-पास टुटुगुडू की कुलमति पुरति से दूसरी शादी की। कुलमति से उनको कोई संतान नहीं हुई।
कानुरामजी का गीत-रचना की ओर झुकाव बचपन से ही झुकाव था। वे अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाना चाहते थे। तत्कालीन मानवशास्त्री शरत्चंद्र राय एक पत्रिका निकालते थे- ‘मैन इन इंडिया।’ कानुरामजी का संपर्क राय साहब से हुआ और सन् 1924 से कानुरामजी की कविताएँ ‘मैन इन इंडिया’ में छपने लगीं। इसके बाद ही उनका पहला काव्य-संग्रह ‘हो दुरङ’ प्रकाशित रूप में सामने आया। 1948 ई. में ‘मैन इन इंडिया’ (राँची) में उनकी एक हो लोककथा अंग्रेजी अनुवाद सहित छपी। उस प्रकार उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता में कदम रखा। लखनऊ विश्वविद्यालय नृशास्त्र के विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेंद्र मजूमदार ने कानुराम देवगम की प्रशंसा करते हुए हो जाति के प्रकाशवाहक के रूप में उनका उल्लेख किया है। उन्होंने इनकी कई कविताओं को अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है।
अध्यापन के साथ-साथ वे कविताओं की रचना करते रहे। सन् 1923 में उनके जागृति गीत के अंश- “हागांय सोमाय बोदोल जाना, दामा दुमां सुसुन दुरां, नालम रसिकान, दिसुम बुगियो होरा नाम में, दामा दुर्मा सुसुन नाखड़ा नालम नेकेलान ॥” अर्थात् “बंधु समय बदल गया है, नगाड़ा मांदर नाच गागन, बहुत अधिक उसी में मत लगे रहो।” वे लोगों को अपनी कविताओं से सचेत करते रहे-“नुइम तानाम पुडु पुडु डियांग तांगाररे, नालम चाबुड़ाना ॥ दिसुम रेया बानो उड्डु, डियांग तांगारेम, हाम्बुडाकाना ॥ अर्थात् “दोना भर-भरकर पीते हो, हँड़िया की हाँड़ी को छाती से लगाए बैठे हो।” कविताओं के संकलन का प्रकाशन ‘हो दुरंग पोथी’ के नाम से कानुराम के स्वामित्व में श्री विश्वनाथ दास मुद्रक ने कृष्णा प्रिंटिंग वर्क्स, चाईबासा से किया है। प्रकाशन वर्ष अज्ञात है। इसकी 2000 प्रति छपी थी। यह अब अनुपलब्ध है। इस काव्य-पुस्तिका के आरंभ में ‘उंकुडु काजी’ में वकील देवेंद्रनाथ सामंत लिखते हैं- “हो दुराँग रेआ पोथी ओलकेन जुड़ी नेन रेआ उंकुड्डु काजी ओलते मेताडिंगआ। पाढ़ाव बागेयान चानाब जिला स्कूल रे मास्टररेआए पाइटितनरे छुटी कोरे नेन पाइटि जोर सोरते रिकायतन टाइकेना। नेन किताबरे नेलेकन दुरंगको मेना चि दुरांग आयोमकेते शिक्षा-प्रचार, समाज ऑडो दिसुम सेवा पाते हो कोआ मोन ताउइओआ। दिसुम सेवा लागिद उटानते, जुड़िनते होबाओआ। अर्थात् हो गीतों की इस पुस्तिका को लिखनेवाले मेरे मित्र ने मुझसे पुरोवाक् लिखने का आग्रह किया है वे पढ़ाई-समाप्ति पर जिला स्कूल में कार्यरत रहते हुए छुट्टियों के समय समाजसेवा के कार्य बड़ा मन लगा कर करते। इस पुस्तक में ऐसे गीत हैं, जिसे सुनने के बाद शिक्षा-प्रसार, समाज एवं देश की सेवा करने को मन आतुर होगा। देश की सेवा के लिए जागृति लानी होगी। पुस्तिका में सन् 1918 से 1948 के बीच रचित कविताओं का संकलन है। सामंतजी लिखते हैं, “तिसिंगेएते दोसि सिरमा आयेर नेन किताबरे ओलकान दुरांग कोए बाइकेडा।” अर्थात् “इस किताब में सम्मिलित किए गए गीत आज से तीस वर्ष पूर्व लिखे गए थे।” प्रतीत होता है कि यह गीत पुस्तिका ‘हो दुरंग पोथी’ कोई 50 या 60 के दशक में प्रकाशित हुई है, जब चाईबासा में कृष्णा प्रिंटिंग वर्क्स स्थापित हुआ होगा। विदित है कि ‘सेंया मरसल’ पत्रिका भी छोटानागपुर प्रिंटर्स, चाईबासा से ही छपती थी। कानुरामजी ने सन् 1952 ई. को झारखंड पार्टी के उम्मीदवार बनकर संसदीय चुनाव लड़ा। उनका चुनाव चिह्न ‘सिम सांडी’ अर्थात् मुरगा छाप था। उन्होंने पूरे भारत के स्तर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी अधिक वोट लाकर विजय हासिल की थी। 1955 से लेकर 1957 तक वे संसद् सदस्य रहे। उन्होंने मराङ गोमके जयपाल सिंह के साथ मिलकर अलग झारखंड राज्य की माँग करते हुए झारखंड पार्टी को खड़ा करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। गुवा जमदा से टाटा तक की ‘सिंगल रेलवे मार्ग’ को ‘डबल वे’ करवाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। सांसद सदस्यता की समाप्ति के बाद वे चाईबासा कलेकटिएट में छह साल तक के लिए अवैतनिक (ऑनरेरी) मजिस्ट्रेट रहे। उसी दौरान आकाशवाणी राँची से उनकी कविताओं का प्रसारण हुआ। उन्हीं दिनों ‘सेंया मरसल’ पत्रिका ‘हो साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिषद्’, चाईबासा की ओर से प्रकाशित की गई थी। यह पत्रिका हो समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक अवस्था पर केंद्रित थी। परिषद् के सदस्यों ने पत्रिका के संपादन के लिए कानुराम देवगम, घनश्याम पुरती एवं सहयोगी बुधलाल बोयपाई को प्रकाशन का कार्यभार सौंपा। पत्रिका का प्रवेशांक 2 अक्तूबर, 1955 को पाठकों के बीच पहुँचा। वे ‘सेंया मरसल’ पत्रिका के ‘पिन्तिरः बकड़ा’ अर्थात् ‘संपादकीय’ को तीन-चार पैरा में लगभग 150 शब्दों का लिखते थे। वाक्य-रचना की दृष्टि से उन्होंने सरल भाषा के साथ छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग किया है, जिसे वे देवनागरी लिपि में लिखते थे। पत्रिका के प्रवेशांक के प्रथम संपादकीय के पहले अनुच्छेद में उन्होंने लिखा-“एसु रांसा रेयाः कजि, चि ‘हो सैंया सगोम सम्पति’ उम्बुल रे अबुआ कजि ते, चन्डुः मुतिड् गे मियङ् पड़ावे सकम ‘सेंया मरसल’ ओल्ला। बिद्या-बुद्धि अदान मरं हो को मेनेया ओन्डोः नेया सारि कजितन गेया, चि-ओकोन होकोआः कजिते ओल-पड़ावो, बिधा-बुद्धि रेयाः कजि को, का ओल्लोआ ओन्डोः काको पड़ावेया, एनरेदो एन जाति हो कोवाः सेंया ओन्डोः उन्नति मय-मयते ओन्डो चनाब दोः एन जाति मुचड् उतारोआः । हगाको ! अबुआः कजि एसुबु रीं-चबा कडा। नेया गे रांसन कजि, चि, अबुआः कजि अउरी मुचड् चबाओ रे जा चनाबाः, रेयोबु, उड्डुः नमे तना।” अर्थात् “बहुत ही हर्ष की बात है कि हो साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिषद् की ओर से एक मासिक पत्रिका ‘सेंया मरसल’ शुरू हो रही है। विद्वानों का कथन है और यह सही भी है कि- जिन लोगों की अपनी भाषा में पढ़ाई-लिखाई, ज्ञान-विज्ञान की बातें नहीं लिखी व पढी जातीं, वैसे में उस जाति के लोगों का भला व विकास धीरे-धीरे कम होकर समाप्त हो जाता है। ! अपनी भाषा को हम बहुत कुछ भूल चुके हैं। यही खुशी की बात है कि हमारी भाषा खत्म नहीं हुई है, जो कुछ भी बचा खुचा है, उसे हम याद कर पा रहे हैं। भाषा संबंधी त्रुटियों को संपादक द्वय ने सुधारने का अथक प्रयास किया है। ‘सेंया मरसल’ के तृतीय अंक में उन्होंने शब्दों के मानकीकरण की ओर स्पष्ट संकेत किया है। “ओल कोरे नेलेयाना चि आकार, इकार का उडूऊउः तना। एना मेन्ते हगा मिसिको ताआः रे नेयागे उदुबोः तना चि, नेनाको उड्डुवा कयतेबु ओले, चिलिकबु कजीया एनकागे ओले तेयाःबु उडुःए रेदो तोरं साबिन मिड् गेबु ओलेया।” अर्थात् स्पष्ट होता है कि आकार, इकार पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसलिए भाइयों एवं बहनों को यह सूचित किया जाता है कि वे इन बातों को याद रखकर लिखें, जैसा हम बोलते हैं, वैसा ही लिखने का प्रयास रखें तो शायद सभी एक प्रकार से लिख सकेंगे। दरअसल वे भाषा के मानक रूप को लेकर अत्यंत सजग थे। उनका स्पष्ट मानना था कि अगर आरंभ से ही इस पर ध्यान नहीं दिया गया आगे मुश्किलें बढ़ेंगी। इसीलिए उन्होंने अपने संपादकीय में रचनाकारों का ध्यान इस ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया। इस प्रकार उन्होंने ‘सेंया मरसल’ को साहित्यिक पत्रकारिता का दर्जा दिलाया, जिसमें भाषा की शुद्धता पत्रिका की प्राथमिकता थी।
उन्होंने ‘सेंया मरसल’ साहित्यिक पत्रिका में निम्नलिखित स्तंभों को प्रमुखता से स्थान दिया (क) भाषा, कहानी, कविता, गीत, नाटक, संपादक के नाम पत्र, लघु कथा, श्लोक। (ख) इतिहास, लेख। (ग) जीविका, आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, शोषण से संबंधित आलेख। (घ) आर्थिक, कृषि, पर्यावरणीय, सांस्कृतिक, रिपोर्ट, रहन-सहन। (ड़) आम सूचना, निवेदन, अनुभव, भविष्यवाणी, विज्ञापन। (च) बुझौवल, चुटकुला, नीतिकथा, शिक्षाप्रद, व्यंग्य कथा, दवा-दारू, पाक-कला, संताल। (छ) अन्य भाषाओं में संताली भाषा की रचनाओं को प्रकाशित करना।
उन्होंने पत्रिका के पृष्ठ संख्या को हो शब्दों में लिखना शुरू किया। उदाहरण के लिए मियाड, बारिया, आपियाँ, उपुनिया, मोयेया, तुरुइया, अड्ड्या, इरलेया, आरेया, गेलेया, गेल मियङ् इत्यादि। उनके संपादक बने रहने से लेखकों व कवियों की एक टीम बनी, जो निरंतर लिखते रहे।
पत्रिका में प्रमुख कहानकार थे-गोसाई देवगम, प्रतापसिंह सवैयाँ, डोबरो पाड़ेया, पागल अनंत पिंगुवा, कालीचण बिरुवा ‘रूमुल”, सुरा पुरति, पीए हेस्सा, रघुनाथ सामद, पितांबर कान्डेया आदि। पत्रिका में गीतों व कविताओं की संख्या भी अच्छी-खासी थी। गीत व कविता के रचनाकारों में प्रतापसिंह सवैयाँ, सी. आर. माँझी, एल. सवैयाँ, पागल अनंत, कालीचरण बिरुवा ‘रूमुल’, बुधन सिंह तामसोय, सुरा पुरति, मुरलीधर विरुवा, दान्डिया बिरुवा, जेसी हेस्सा, लेबेया सवैयाँ, बलभद्र, रघुनाथ सामद, सुकराम वानसिंह, कान्हराम देवगम आदि प्रमुख थे। इन सबमें बहुआयामी क्षमता व योग्यता थी। अन्य रचनाकार यहाँ तक कि के नाम लिखनेवालों की लेखनी में भी गजब की गंभीरता झलकती है। इन सभी बातों का श्रेय निश्चित रूप से पत्रिका के संपादक कानुराम देवगमजी को जाता है।
बिहार सरकार राजभाषा विभाग द्वारा ‘बिहार के वरिष्ठ हिंदी सेवीः दीर्घकालीन हिंदी सेवा के लिए’ दिनांक 10 अगस्त, 1981 को श्री राजेश्वर प्रसाद सिन्हा (आयुक्त सह सचिव, राजभाषा विभाग), श्री योगेश्वर प्रसाद योगेश (राजभाषा विभाग), डॉ. जगन्नाथ मिश्रा (मुख्यमंत्री, बिहार सरकार) द्वारा उन्हें सम्मान दिया गया। विद्यापति परिषद् चाईबासा की ओर से मैथिली भाषा-भाषियों ने कानुरामजी को उनकी कृति ‘हो दुरंग पोथी के लिए सम्मानित किया। जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, राँची विश्वविद्यालय की ओर से भी उन्हें हो साहित्य की उत्कृष्ट सेवा के लिए 1989 में सम्मानित किया गया। विभागीय परिवार की ओर से उन्हें यह सम्मान तत्कालीन विभागाध्यक्ष पांडेय धीरेंद्रनाथ राय ने प्रदान किया था।
कानुरामजी ने होमियोपैथी के ईलाज द्वारा भी लोगों की सेवा की है। उन्होंने रोगियों को घर पर देखने की व्यवस्था कर रखी थी। आमतौर पर वे शाम के समय घर पर उपलब्ध होते थे। वे रोगियों की सुविधाओं के अनुसार समय देते तथा निःशुल्क सेवा करते थे। उनके इन्हीं प्रयासों से प्रभावित होकर रोटरी क्लब, चाईबासा की ओर से उन्हें 89 वर्ष की आयु में ‘विशेष सम्मान पत्र’ से सम्मानित किया। उन्होंने बँगला भाषा में औषधियों से संबंधित पुस्तक लिखी हैं, जो कि अप्रकाशित है। इसके अतिरिक्त उनकी अनेक साहित्यिक रचनाएँ भी अब तक अप्रकशित हैं, जिनमें ‘देवगम दुरं दाआ’ और ‘प्रेम हीरा’ गीत किताब प्रमुख हैं। प्रथम हो साहित्य सेवी मास्टर कानुराम देवगम को आज हो समाज ने भुला दिया है। उन्होंने जीवन में अपने लिए कम, समाज के लिए अनुपातिक रूप से अधिक समय दिया। बहुमुखी प्रतिभा और नेतृत्व जैसे गुणों से संपन्न होने के कारण वे लोगों के जन प्रतिनिधि भी बने। एक ऐसे बुद्धिजीवी, जिन्होंने अपने समकालीन आदिवासी चिंतकों को प्रभावित किया। उनके दौर के बच्चे उनको ‘कानु मास्टोर’ एक जिंदादिल इनसान के रूप में याद करते हैं। “सामा काजि सामा इर्नु, काबुआ गा नाआ दो, सोमाय चाबाताना।पाइटिआबु, कामियाबु, पाइटि कामि, यूग हागागांय सेटेराकाना ॥”अर्थात् केवल वातें, केवल खेल, नहीं अब और नहीं, समय खत्म हो रहा है। आओ कर्म करें, आओ परिश्रम करें, कर्म उद्यम का युग आया है।10 फरवरी, 1991 को 94 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके द्वारा लिखित ‘गुलाब बड़ा’ कविता से ही उनके नाम एवं व्यक्तित्व की सुगंध चारों ओर फैली हुई है, फैल रही है और कई कालों तक यह मधु सुगंध फैली रहेगीं (कानुरामजी के सबसे छोटे पुत्र बोधनाथ देवगम तथा उनके पोते अधिवक्ता नरेश देवगम से किए गए साक्षात्कार पर आधारित)।
ओतोल्ल :- इंदिरा बिरुवा।
सग’इयन पुति :- झारखण्ड के साहित्यकार और नए साक्षात्कार (सम्पादक :- वंदना टेटे)