कोल्हान के कोल हो लोगों का गौरवशाली इतिहास
25 मार्च 1820 को अंग्रेजों और हो प्रतिरोध के बीच कोल्हान में होने वाली युद्ध को इतिहास में “हो विद्रोह”कहा गया। जबकि 1831 को छोटानागपुर , रांची जिला के सोनपुर में कोल विद्रोह हुआ था। पाठयक्रम में अंग्रेजों के साथ होने वाली इस प्रतिरोध को शामिल नहीं किए जाने के कारण अब तक उल्लेखित विद्रोह के बारे में अधिकतम लोग संशय में रहते है। क्योंकि कोल्हान के हो लोगों को आज भी कोल के नाम से गाली दी जाती है।लेकिन कोल्हान में रहकर हो जाति समाज को गाली देने वाले का एतिहासिक गौरव क्या है पहले वे अपने को ढूंढ लें। इसीलिए सामान्य तौर पर लोग हो विद्रोह को कोल विद्रोह के रूप में समझते है। जबकि दोनो विद्रोह अलग अलग समय में अलग अलग जगह पर घटित हुई थी। जहां हो विद्रोह 1820 से 1837 तक चाईबासा केंद्रित दक्षिण कोल्हान के पीड़ और मौजा में हुई थी। वहीं कोल विद्रोह 1831 32 में छोटानागपुर के सोनपुर, तमाड़,मुरहू बंदगांव के क्षेत्र में हुई थी। जिस कोल विद्रोह का नेतृत्व बिंदराय सिंगराय मानकी ने किया था। जिनसे प्रेरित होकर कोल्हान के हो विद्रोही सहित सभी झारखंडी समुदाय भाग लिया था।
उन दिनों की बात है जब अंग्रेज और बंगाल के नबाब के बीच प्लासी और बक्सर का युद्ध होने के बाद वे अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।तब अंग्रेज कोलकाता,मद्रास,और मुंबई प्रेसीडेंसी बनाकर अपना शासन प्रशासन चला रहे थे। धीरे धीरे देश के सभी देशी रियासतों पर अपना आधिपत्य कायम कर रहे थे। उस समय अंग्रेज व्यावसायिक दृष्टि से मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। तब उन अंग्रेज शासकों की राजधानी कोलकाता हुआ करता था। कोलकाता से मद्रास जाने के लिए रास्ता ढूंढ रहे थे। तब उन अंग्रेजों को पता चला कि कोलकाता से मद्रास जाने के लिए रांची,बंदगांव,चक्रधरपुर ,चाईबासा, सेरेंग्सिया,जगन्नाथपुर होते हुए संबलपुर के रास्ते मद्रास जाने के लिए सीधा रास्ता तैयार किया जा सकता है। इसी प्रयास में अंग्रेजों को कोल्हान के हो लोगों के बारे में पता चला। जिस हो जाति को लड़का कोल के रूप में भी कहा गया। कोलकाता से मद्रास का मार्ग प्रशस्त करने के लिए अंग्रेजों ने कोल्हान के इस भूभाग में अपने अधिकारी भेजे। तब अंग्रेजों को पता चला 50 वर्ष पहले से कोल्हान के हो लोग यहां खूंटकट्टी गांव बसाकर स्वतंत्रता,संप्रभुता, स्वशासन प्रणाली के तहत भू संपदा पर आधिपत्य कर रखा है।जिस भूभाग पर अफगान,मराठा,और मुगल भी कब्जा नहीं कर सका। तब अंग्रेज उपाय सोचने लगा और 1773 में सिंहभूम कोल्हान पर हस्तक्षेप करना शुरू किया। इसी बीच 1818 का तीसरा एंग्लो मराठा युद्ध हुआ। जिसके बाद अंग्रजों ने कटक और संबलपुर को अपने अधीन कर लिया । मेजर रफसेज ने अपने सहायक लेफ्टिनेंट रुद्देल को कोल्हान में रहने वाले एक्स्ट्रा आर्डिनरी हो लोगों के बारे में जांच पड़ताल करने के लिए 1819 में भेजा था। पर लेफ्टिनेंट रुद्देल को हो यानी लड़का कोल जातियों को समझने के लिए कोई अधिक श्रोत नहीं मिल पाया। तब मेजर राफसेज स्वयं 22 मार्च 1820 को कोल्हान के उतरी भाग के कुछ मौजा और पीढ़ के मुंडा और मानकी लोगों से मिला। जिसमें उन्होंने उन्हें रिझाने के लिए टॉवल देकर सम्मानित भी किया था। पर उसी समय दक्षिण कोल्हान के गांव में अंग्रेज मेजर रफसेज के आने की खबर आग की तरह फैल चुकी थी। 50 वर्ष पहले से कोल्हान पर अपना आधिपत्य जमाए बैठे हो लोगों को मेजर राफसेज का का दखल रास नहीं आ रहा था। वे उनके खिलाफ विद्रोह करने का रणनीति बनाना शुरू किया। जब 25 मार्च 1820 को मेजर रफसेज अपनी सेना के साथ कोल्हान के हृदयस्थल चाईबासा पुलिस लाइन स्थित कैंप कार्यालय में पहुंचे। चाईबासा से दो ढाई किलोमीटर के दायरे में निवास करने वाले हो गांव के ग्रामीण ने चारों ओर से मेजर रफसेज की घेराबंदी करने के लिए अपने हाथ में तीर धनुष, बरछा,कुल्हाड़ी लिए कैंप कार्यालय के समीप पहुंच गए। हाथ में पारंपरिक हथियार लेकर चारों ओर से आ पहुंचे और हो लड़ाकों ने कैंप कार्यालय के समीप ही एक कैंप कर्मी की हत्या कर दी।और दो लोगों को गंभीर रूप से घायल कर दिया। हो विद्रोहियों की इस दूसाहस को देखकर अंग्रेज घबड़ा गए। इसकी सूचना मेजर रफसेज को दी गई।मेजर रफसेज खिड़की से हो लड़ाकों को देखा और वे अपमानित महसूस करने लगे। तब तुरंत उन्होंने कमांडर अधिकारी लेफ्टिनेंट मेलार्ड को उन हो लड़कों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। जिसमें ठीक शहीद पार्क चाईबासा में जुटे हुए लगभग 300 हो लड़ाकों पर अंग्रजी सेना ने गोली चला दी। जिस घटना में 40 से 50 हो विद्रोही वहीं शहीद हो गए। और बाद बाकी हो लड़ाके इस घटना के बाद इधर उधर भाग गए। इस घटना के बाद फिर कमांडर अधिकारी ने तुरंत उस और आगे बढ़ गया जहां एक कैंप कर्मी और अंग्रेजी घोड़े को घास खिलाने के लिए घास काटने वाले एक व्यक्ति को हो लड़ाकों ने मार दिया था। इस घटना को नरसंडा गांव के हो लड़ाकों द्वारा रोड़ो नदी के किनारे अंजाम दिया गया था।और वे पारंपरिक हथियार के साथ तैनात होकर वहीं खड़े थे। फिर दोनों ओर से भयंकर युद्ध हुआ था।।जिस युद्ध में हो लड़ाकों के हाथ में पारंपरिक हथियार और अंग्रेजी सेना के हाथ में आधुनिक हथियार था। लेकिन युद्ध होते रहा। जिसमें हो लड़ाकों ने दो तरह का तीर धनुष का उपयोग किया था।एक कम से कम 160 मीटर तक की दूरी पर खड़े व्यक्ति को मारने के लिए और एक कम से कम 30 से 40 मीटर की दूरी पर खड़े व्यक्ति को मारने के लिए। जाहिर सी बात है आधुनिक अंग्रेजी हथियार के सामने हो लड़ाकों का पारंपरिक हथियार कमजोर पड़ गया। परिणाम स्वरूप उस युद्ध मे भी लगभग 60 हो लड़ाके शहीद हो गए। जिसमें हो लड़ाकों की तीर से अंग्रेजी सेना और घोड़े गंभीर रूप से घायल हो गए थे। 25 मार्च 1820 को कोल्हान की भू संपदा पर आधिपत्य कायम रखने के लिए हुई अंग्रेज हो विद्रोह में लगभग कुल 100 से 200 हो विद्रोहियों ने अपनी बलिदानी दी थी।
चाईबासा शहीद पार्क का क्या इतिहास है
जिस हो विद्रोह के याद में शहीद पार्क का निर्माण अंग्रेजों ने ही देश आजादी के पूर्व की थी। जिसका उद्घाटन तत्कालीन बिहार,ओडिसा के गवर्नर गार्नियर मोरिस हैलेट ने 6 अक्टूबर 1937 को किया था। जिस हो विद्रोह को अंग्रेजों ने पचास साल तक नहीं भूल पाए। और हो विद्रोहियों को अंग्रेजों ने ही असाधारण वीरता वाले जाति का उपाधि दिया था। जिन्हें अंग्रेजों के रिपोर्ट के अनुसार कोल्हान की भू संपदा पर उनकी स्वतंत्रता,संप्रभुता,स्वशासन प्रणाली से छेड़छाड़ करना कतई बर्दाश्त नहीं था। कोल्हान की भू संपदा पर अपना आधिपत्य कायम रखने के लिए हो लड़ाके अंग्रेजों से निरंतर 17 वर्षों तक लड़ते रहे।
इसलिए आज के युवा पीढ़ी के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। अपने गौरवशाली इतिहास को जानना आवश्यक है। उससे प्रेरणा लेना जरूरी है। अपनी आत्मसम्मान और स्वाभिमान जगाने के लिए इतिहास ही सहायक बनता है। क्योंकि इतिहासकारों ने ही इतिहास के पन्नों पर लिखा है। जिन जाति समाज का कोई गौरवशाली इतिहास ना हो उन जाति समाज को समाप्त होने में कोई समय नहीं लगता। क्योंकि उनके अंतस में आत्मसम्मान और स्वाभिमान का संकट हो जाता है । वे हीनभावना से ग्रसित हो जाते है। यही कारण है कि वैसे जाति समाज दुर्बल और दीनहीन हो जाते है। आएं हम सभी अपनी गौरवशाली इतिहास पर गौर फरमाएं। उन अमर वीर बलिदानियों को नमन करें। जिनकी वीरता को अंग्रेजों ने भी पचास साल तक नहीं भूला सका। जिनके याद में ईमानदारी से शहीद पार्क चाईबासा को एक धरोहर के रूप में बनाकर गए। उन 50 अमर वीर हो विद्रोहियों को 25 मार्च को हो दस्तूर के अनुसार दुल सुनूम कर श्रद्धा सुमन अर्पित करें। और खंडित हो रही स्वाभिमान को फिर से जागृत करें। कोल्हान की भू संपदा पर आधिपत्य कायम रखने के लिए शहादत देने वाले उन अमर वीर हो लड़ाकों को नमन,नमन और नमन करने के लिए शहीद पार्क चाईबासा पहुंचे।
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सन्नी सिंकु,
संयोजक,
झारखंड पुनरूत्थान अभियान