कविता – हो जाति
हो जाति इस देश का एक पुराना जाति है,
धान खेत का घास जैसा उसका परिचय है ।
मैं आदिम जाति हुँ यह वो बोलता फिरता है,
जहाँ गया, कहाँ से आया ? इसे पूछा जाता है ।
भाषा, धर्म दष्तुर को मुशकिल से बचाया है,
दुसरे अपवित्र करेंगे सोच अन्दर ही रखा है ।
भीड़ भाड़ में रहकर आज यह खो सा गया है,
अपने भाई बंधुओं से दूर होता जा रहा है ।
भाषा स्वीकृति कराने को चिल्लाता रहा है,
कई बार सरकार के सामने गुहार किया है ।
कल परसों कहकर इसे ठगा जाता रहा है,
कल परसों करते सरकार चुप बैठ जाता है ।
जन्मभूमि में खानाबदोश जाति बन गया है,
जमीन का धनी आज झोपडी़ में रहता है ।
सड़क का मोरम जैसा जीवन बिछ गया है,
जिसके उपर बाबुओं का आना जाना जारी है ।
प्रकृति को बचाने के लिए ये लोग लगे रहे,
इसे बर्रबाद करने वालों को ये रोक ना सके ।
पूजने को वृक्ष व पत्ते अब नहीं मिल रहे,
प्लास्टिक थाली में खाने को मजबूर हुऐ ।
सीदा सादा जीवन जीकर यह हालत हुआ है,
झूठ, छल कपट प्रतियोगिता में हार हुआ है ।
देश का नागरिक बनकर मालगुजारी देता है,
इनके लिए सरकार का सही योजना नहीं है ।
तरह तरह की बातों से जाति बिगड़ गया है,
आपसी बातचीत में खींचा तानी बढ़ गया है ।
पढ़े लिखे एक तरफ तो अनपढ़ एक तरफ रहे,
दो दलों के बँटवारे पर तीसरे लाभ उठाते रहे ।
हो जाति का उन्नत साहित्य बचाना होगा,
भारत सरकार से इनका अपील यही रहेगा ।
इनका भी धरती पर जीने का अधिकार है,
इन्हें बेचारा अनाथ जैसा क्यों देखा जाता है ।
कवि – #हिर्ला Budhan Singh Hessa