Ho language literature is very ancient
साहित्य से हमारा अभिप्राय यह है कि वह प्राचीन ऐतिहासिक महत्व का हो यदि एक ओर वर्त्तमान वाणी से परि पूरित हो तो दूसरी ओर इसमें अतीत की गरिमा भी प्रतिध्वनित हो, तीसरी ओर इसी अतीत और वर्त्तमान के बल पर शुद्ध एवं सात्विक रूप से साहित्य रूप से साहित्य भविष्य सृजन भी किया जा सके। वास्तय में प्राचीन और नवीन का सामंजस्य ही साहित्य का सच्चा सवरूप हो सकता है और उसमें मानव सभ्यता स्थापित करने की क्षमता पनप सके। इसी कसौटी पर साहित्य भविष्य की इमारत खड़ी की जा सके।
हो भाषा साहित्य की इमारत की नीव अति प्राचीन हैं।
इसकी प्राचीनता का आभास अगस्त्य (हगाष्तोए) ऋषि के विन्ध यचल पर्वत (विडदोयाचल बुरू) पार करने से कई हजार वर्ष पूर्व प्राग्वैदिक काल तक हमें मिलता है जबकि जम्बुद्वीप (जाँबुडिपा) पर टूअर कोड़ा-कसरा कोड़ा का अवतार हुआ था। इस काल का अनुमान मोहेञजोदड़ो (मञजुदोड़ो) की सभ्याता के पूर्व प्राग्वैदिक काल लगता हैं। इन दोनों काल के मध्य में धन्वन्तरि (देवाँ तुरि) नामक आयुर्वेद पुस्तक की रचना हुई थी। किंवदन्ति है कि ‘धन्वन्तरि’ उस काल में इसी लिपि में लिखी गयी थी जो अ ‘पिज कुँड’ वर्त्तमान टुकड़ा सिंहभूम के ‘हो’ जनजाति के बीच प्रचलित ‘वोङ्गा अका’ है जिसे ‘व्हरोङ क्षिति’ लिपि के नाम से जानी जाती है। प्राग्वैदिक काल के राजाओं के राज्य काल में जब गिरू नगर और चोम्पानगर की सभ्यता थी तब तीनों लोक की ‘देवी मञ्जुश्री’ रानी के समय मोहेन्जोदड़ो की सभ्यता चरम सीमा पहुँच चुकी थी। यही सभ्यता बाद में चल कर सिन्धु सभ्यता से अभिहित हुई जिसका काल ६००० ई० पूर्व तक जाता है। यही सिन्धू-सभ्यता हिन्दू सभ्यता बनी जो भारतीय सभ्यता का भी मूल आधार है।
भाषा विज्ञान की दृष्टि से छोटानागपुर की जनजातियों की भाषा, विशेषकर होड़ो (हो), सन्ताल, मुण्डा, भूमिज, खड़िया, बिरहोड़ तथा असुर आदि जनजातियों की भाषा ऑस्ट्रिक या आग्नेय परिवार की भाषा है जिसे ऑस्ट्रीएशियाटिक भाषा समुदाय के अन्तर्गत विद्वानों ने रखा है। अपने पूर्वजों की भाषा की खोज में अन्तत जाने पर हमें एक ऐसी आदिम भाषा का पता चलता है जिसे हम आज शायद ही समझ पायेंगे। वेदों और उपनिषदों के पूर्व भी भारत में एक समृद्ध साहित्य का पता चलता है जो अब अप्राप्य है। यह साहित्य हमें उस भारत की और याद दिलाता है। वास्तव में छोटानागपुर की जनजातियों की भाषा तथा बोलियाँ कुडूख (उराँव) और सदानी (नागपुरी) को छोड़ “मुण्डा-परिवार” की ही भाषाएँ हैं जो कभी कोलीरियन भाषा समुदाय भी कही गई थी; क्यों कि ये भाषाएँ भारत के कोल तथा भीलों द्वारा बोली आती थी। सर मैक्स मूवर महोदय ने सर्वप्रथम मुण्डा भाषा परिवार की भाषा समुदाय को द्राविड़-परिवार की भाषा से अलग करते हुए ‘मुण्डा परिवार’ नाम रखा। विद्वानों के मत में अब केवल कोल, सन्ताल, मुण्डा जाति की ही भाषा ऑस्ट्रिक (आग्नेय) परिवार की भाषा समझी जाती हैं तथा असम और वर्मा की मॉन-ख्मेर भाषा ही। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में विलहेल्म स्किमिट महोदय ने यह प्रमाणित कर दिखलाया कि मॉनख्मेर, खासी तथा इन्डोनेशिया की भाषाओं के साथ भारत के “मुण्डा परिवार” की भाषाओं के बीच एक सम्बद्ध कड़ी है। उन्होंने यह भी दिखलाया कि इन्डोनेशिया, मलयेशिया, पोलिनेशिया की भाषाएँ भी इसी समुदाय के अन्तर्गत आती है जिन्हें उसने ‘ऑस्ट्रोनेशिक’ कहा। इस प्रकार आग्नेय भाषाओं का विस्तृत क्षेत्र मडोगास्कर से लेकर इस्टर आइलैण्ड और इससे सुदूर दक्षिण अमेरिका के समुद्री तट तक रहा है। भाषा विशेषज्ञों के अनुसन्ध ान से यह अब अधिक स्पष्ट होता जा रहा है। न केवल मॉन-ख्मेर’ अर्थात दक्षिण एशिया की भाषाओं में ही एक रूपता पाते है; बल्कि संसार की अनेक भाषाओं में मुण्डा, सन्ताली और ‘हो’ आदि भाषाओं की ध्वनि एवं धातु में समरूपता पाते है। इसकी समरूपता संस्कृत में प्रचूर मात्रा में विद्यमान है।
मुण्डा जाति भारत अर्थात ‘इण्डिका’ की प्राचीन जन-जाति हैं। मुण्डाओं का यह विश्वास है कि उनकी अपनी लिपि थी जो किसी कारए वश खो गयी या नष्ट हो गयी। मुण्डाओं के ‘चउलिजं तुपुनम’ से भी यह स्पष्ट होता है।
पृथ्वी के इतने विस्तृत भूभाग में प्राचीन काल में भाषा के अवशेष तथा धातु में समरूपता का पाया जाना हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचा देता है कि उस प्रग्वैदिक काल की भाषा आग्नेय-परिवार की मुण्डा भाषा रही है जिसकी अपनी लिपि थी जो पृथ्वी के कई भागों में खुदाई में मिली है जो अब तक पढ़ी नहीं जा सकी हैं। यदि भारत के जनजातीय भाषाओं का विकास अपने अनुरूप होगा तो निश्चत ही उस लिपि को पढ़ने में, उस प्राग्वैदिक काल की सभ्यता को पहचानने की जो समस्या है वह आसानी से हल हो सकेगी और इसका श्रेय भारत को मिलेगा। भारत की आत्मा का स्वरूप जानने के बाद इससे सन्बन्धित सारा सन्देह अपने आप दूर हो जाता है।
प्रस्तुत पुस्तक का नाम “व्ह बुरू-बोङ्गा बुरू” रखा गया है। ‘व्ह’ का सामन्य अर्थ पुष्प हैं, ‘बु’ का अर्थ पर्वत हैं
अर्थात पर्वत के पुष्प ‘सरजोम व्ह’ ‘सखुआ फूल’ से सम्बन्धित रखता है। और ‘वोङ्गा’ अर्थ देवता। तात्पर्य देवताओं के घर से है। पौराणिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से ‘पद्य’ शरीर तथा मन का अर्थ घोतक है। पुस्तक के दो खण्ड हैं एक पद्य भाग और गद्य भाग। पद्य भाग में ‘हो लोक गीतों’ का संग्रह जो विभिन्न त्योहारों के लय पर सजाये गये हैं। इसका श्रेय श्री लको (लाखी बोदरा) को है। इससे ‘हो’ लोगों की संस्कृति अक्षुण बनी रहेगी, संस्कृति की रक्षा होगी, भाषा के विशिष्ट तत्वों की रक्षा होगी, इसका पूर्ण ध्यान दिया गया है। इसके अलावे हो भाषा के प्रमुख कवियों – सर्वश्री कान्हूराम देवगम, सतीश कुमार कोङऽ, श्री लको बोदरा, प्रोफेसर बलराम पाट पिंगुवा, शंकर लाल गागराई, अनन्त कुमार पिंगुवा तथा डा० राम दयाल मुन्डा आदि की कविताएं सम्मिलित की गयी है। गद्य भाग में ‘हो’ लोगों में प्रचलित कहानियों तथा रचनाओं का समावेश है-जो साहित्यिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि कोण से लिखी गयी है। साहित्विक दृष्टि से इनमें प्राचीन तथा नवीन दोनों तत्वों का सामञ्जस्य है जो ‘होड़ो’ अथवा ‘हो’ या ‘हौ’ (आग्नेय-भाषा-परिवार) की साहित्यिक आपूर्ति का परिचायक है, साथ ही युग की अभिव्यक्ति भी।
पद्यांश और गद्यांश के कुछ शब्द अति प्राचीन है; परन्तु इनका भाव अतीत की गहराई को स्पर्श करते हुए आधुनिक एवं नवीन है तथा युगानुकूल भी। अपने आप में यह पुस्तक एक साहित्यिक रचना का उत्कृष्ट नमूना है। इससे न केवल इन्टरमिडिएट के विद्यार्थियों को, बल्कि हौ जनजाति के सर्व साधारण पाटकों को भी सद्बुद्धि मिलेगी तथा ‘ही’ लोगों की संस्कृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होगा।
सर्वप्रथम उन लेखकों, कवियों का धन्यवाद ज्ञापन करना चाहते हैं जिन्होंने इस पुस्तक में अपनी रचनाएं सम्मिलित करने की अनुमति दी है तथा अंडोस् अपिल्ल प्रेस के व्यवस्थापक श्री रइषहीन वर्तमान (रायसन) पड़ेया को धन्यवाद देते हैं जिनके अथक परिश्रम से ‘व्हरोङक्षिति’ लिपि का प्रेस संभव हो सका है।
अन्त में प्रस्तावना के लेखक डा० प्रेमचन्द होरो, प्रतिकुल पति, राँची विश्वविद्यालय, राँची को हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन करना चाहते हैं जिन्होंने इस पुस्तक की सराहना की है। अतः उन्हें कोटिशः धन्यवाद।
निवेदक :-
प्रोफेसर बलराम पाट पिंगुवा एम० ए०, बी० एल०
(संपादक)
जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग राँची विश्वविद्यालय, राँची
डॉ० लाखो बोदरा
एम.बी.बी.एस. (होमियो)
(संकल्नकर्ता)
राँची
आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान झींकपानी, सिंहभूम
२३ दिसम्बर १६८४