चार अप्रैल, 1982 रात्रि तीन बजे के लगभग जिला मुख्यालय चाईबासा से 15,16 गाड़ियों का काफला मंझारी की ओर जाने वाली सड़क पर निकला। उसमें जीप, ट्रक और बसों की भरमार थी। सभी में पुलिस के जवान भरे हुए थे। यह लश्कर न तो किसी युद्ध में जा रहा था और न किसी दंगा फसाद वाले इलाके में। इतने सारे जवानों एवं गाड़ियों का काफिला चला था एक जवान को गिरफ्तार करने के लिए। जी हां, सेवा निवृत्त वीर सूबेदार गंगाराम कालुन्डिया को। सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित करने वाली बात यह थी कि जिस जवान को रात के अंधेरे में घेर कर पकड़ने का अभियान चलाया गया था उस जवान को उत्कृष्ट सेवा एवं युद्ध में वीरता के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया था। सेना से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात सूबेदार गंगाराम अपने गांव क्षेत्र के लोगों की आर्थिक, शैक्षणिक हालात को अन्य राज्य के लोगों से तुलना करते और अपने लोगों की बदहाली से काफी बेचैन एवं उदास हो जाते। उन्हें कलकत्ता की एक कंपनी से सहायक सुरक्षा अधिकारी हेतु नियुक्ति पत्र प्राप्त हुआ पर उन्होंने उसे त्याग कर अपने इलाके के ग्रामीणों में जागरूकता पैदा करने का मिशन हाथ में लिया। उस दौरान सिंहभूम में बहुद्देशीय परियोजना इच्छा खरकई बांध बनाने हेतु सरकारी स्तर से विभागीय कार्रवाई आरम्भ हुई और उस परियोजना के अंतर्गत सिंहभूम जिले के आदिवासी बहुल क्षेत्र के कई एक गांवों में विस्थापन की बात उठी। गंगाराम का गांव भी विस्थापन सूची में था। उस इलाके के लगभग सभी गांव चिन्हित किए गए थे। विस्थापन की कल्पना से ही लोग चिन्तित एवं अशांत हो गए थे। गंगाराम ने नेहरू जी के पंचशील का अध्ययन किया था जिनमें नेहरूजी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था- आदिवासी क्षेत्र को परियोजनाओं के नाम पर विस्थापित नहीं किया जाना चाहिए। चूंकि आदिवासियों की जीवन शैली, संस्कार, परम्परा प्रकृति से जुड़ी होती है। अतः इनके विस्थापन का मतलब है इनकी संस्कृति और परम्परा का नुकसान करना। अतः गंगाराम ने बांध के विरोध में आवाज बुलंद की। उनके नेतृत्व में गांव-गांव के लोग संगठित होने लगे। अधिग्रहण हेतु जमीन मापी-नापी करने वाले कर्मचारी और अधिकारियों को खदेड़ा जाने लगा। बिरसा भगवान द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ किए गए विद्रोह एवं संगठन के तर्ज पर ग्रामीण संगठित हो गए। नगाड़ों की आवाज से लोग तुरंत एकत्रित हो जाते। एक गांव में नगाड़ा बजते ही दूसरा गांव उस ध्वनि को तीसरे गांव के लोगों तक अपने नगाड़ों से पहुंचाते और यह सिलसिला चलता रहा। इस तरह लोग अपने पुरकौती जमीन से विस्थापन के खिलाफ संगठित हो गए। शहीद गंगाराम का कहना यह था कि अगर सरकार किन्हीं राष्ट्रीय योजना के तहत अधिग्रहण करती है तो यहां के लोगों को पहले बसाने की व्यवस्था करे। रहने के लिए मकान की व्यवस्था हो और तब मुआवजा की बात हो। सिर्फ मुआवजा की रकम देकर गरीब अनपढ़ आदिवासियों को विस्थापित किया जाना, बंदर के हाथ में सोने का आभूषण थमाने जैसा होगा। गंगाराम के तर्क में सच्चाई था। वे अपने लोगों आदिवासियों की हैसियत एवं आदतों को जानते थे। वे यह भी जानते थे कि विस्थापित आदिवासियों को अगर परियोजना में नौकरी मिलती है, तो चपरासी का ही मिलेगा। अतः विरोध होता गया और प्रशासन वस्तुस्थिति को समझने का प्रयास न कर परियोजना में प्राप्त राशि को व्यय करने में ज्यादा तत्परता एवं दिलचस्पी ले रहा था। अन्ततः गाड़ियों के कफिले के बरकुन्डिया गांव के समीप से गुजरते ही ग्रामीणों ने नगाड़ा बजाकर सांकेतिक सूचना प्रचारित की। गांव के लोगों ने गंगाराम को गिरफ्तारी से बचने और गांव से भागने का सुझाव दिया पर वीर गंगाराम का जवाब था अपनी जमीन, अपना घर, अपना गांव छोड़कर भागना हास्यप्रद होगा, सबसे मूर्खता होगी, कायरता होगी। गंगाराम घर से आंगन में निकला ही था कि पुलिस के लोगों ने निहत्थे गंगाराम पर गोली चला दी। गोली जांघ पर लगी थी। बेचारा निर्दोष गंगाराम खून से लथपथ हो गया था। पुलिस बेरहमी से उसे घसीटती हुई गाड़ी तक ले गई थी।
गोली चलने की आवाज ने ग्रामीणों को बेचैन और सशंकित कर दिया। हजारों की संख्या में एकत्रित हो ग्रामीणों ने अफरा-तफरी में तुजबाना और कान्दा मान्दा पहाड़ी के समीप लश्कर को चाग्रे ओर से घेर लिया। सड़क पर बड़े-बड़े पत्थरों को डाल कर जाम किया गया। ग्रामीणों में अफवाह फैल गई थी कि गंगाराम को गोली से भून दिया गया है। उसके बाद और क्या था, पुलिस पर ग्रामीणों ने हमला बोल दिया। चारो ओर से पथराव किया जाने लगा। भीड़ में बच्चे, बूढ़े, पुरूष एवं महिलाएं सभी सक्रिय थे। सूर्योदय हो चुका था। प्रतिनियुक्ति मजिस्ट्रेट पुलिस के जबरदस्ती करने के बावजूद गोली चलाने का आदेश नहीं दे रहे थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि उनके आदेश देते ही हजारों ग्रामीणों की जान जा सकती थी। अन्ततः समझदार मजिस्ट्रेट चुपचाप वहां से रफूचक्कर हो गए। पांच छः घंटों के पश्चात वरीय प्रशासनिक अधिकारियों के हस्तक्षेप से पुलिस का लश्कर वहां से निकलने में सफल हुआ। घायल गंगाराम की पुलिस ने काफी बेरहमी से हत्या कर डाली। अंग्रेज सरकार ने भी शायद सिंहभूम में ऐसा जुल्म नहीं किया पर आजाद हिन्दुस्तान के सिपाहियों ने राष्ट्रपति पदक प्राप्त वीर गंगाराम को अपने अधिकारों की मांग करने, गरीब ग्रामीण किसानों को संगठित करने वाले गंगाराम की हत्या कर दी। उसके पश्चात घड़ियाली आंसू बहाते हुए प्रशासन ने गंगाराम की इकलौती पुत्री को अनुकम्पा के आधार पर चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी का नियुक्ति पत्र थमा दिया। कोल्हान क्षेत्र के लोगों ने गंगाराम को शहीद मान लिया है।
(लेखक-घनश्याम गागराई)
स्रोत – सिंहभूम के शहीद लड़ाका हो