Pita aur uska bachcha Sanskriti pariwartan ka sach
पिता और उसका बच्चा: संस्कृति परिवर्तन का सच
बहुत समय पहले की बात है।
एक गाँव में एक पिता अपने छोटे बेटे के साथ रहता था। पिता धार्मिक और परंपरा-प्रिय व्यक्ति था। जब भी कोई पर्व या त्योहार आता, वह अपने घर के अदिञ (रसोईघर) में बैठकर पूर्वजों की पूजा करता।
लेकिन एक समस्या थी। घर में पली हुई बिल्ली अक्सर पूजा के समय आकर सामग्री को बिगाड़ देती। कभी दूध पी जाती, कभी फूल बिखेर देती, तो कभी दीपक गिरा देती।
इससे परेशान होकर पिता ने एक उपाय निकाला—पूजा करने से पहले वह बिल्ली को रस्सी से बाहर बाँध देता, ताकि शांति से पूजा हो सके।
बेटा अक्सर अपने पिता के साथ बैठा रहता और चुपचाप यह सब देखता।
उसने कभी पिता से नहीं पूछा कि “बिल्ली को क्यों बाँधा जाता है?” बस यह मान लिया कि यह भी पूजा का एक नियम है।
समय बीतता गया।
हर पर्व, हर पूजा में पिता पहले बिल्ली को बाँधता और फिर विधि-विधान से पूजा करता। बेटा यही दृश्य बार-बार देखता रहा और उसकी स्मृति में यह बात गहराई से बैठ गई।
कुछ साल बाद पिता का निधन हो गया।
अब बेटा बड़ा हो चुका था। जब अगला त्योहार आया, तो उसने भी उसी परंपरा को निभाना चाहा। पूजा शुरू करने से पहले उसने बिल्ली खोजी और उसे बाँधकर ही पूजा शुरू की।
लेकिन अब उसके घर में बिल्ली नहीं थी।
तो उसने पड़ोस से बिल्ली माँगकर लाई और बाँध दी। कुछ वर्षों में यह रिवाज उसके घर की स्थायी परंपरा बन गया।
धीरे-धीरे यह कहानी पूरे गाँव में फैल गई।
लोगों ने सोचा कि पूजा से पहले बिल्ली बाँधना ही पूजा का मुख्य नियम है। अब तो हालत यह हो गई कि जहाँ बिल्ली नहीं होती, लोग खास तौर पर बिल्ली खरीदकर या कहीं से लाकर बाँधते, और फिर ही पूजा करते।
आज भी हमारी कई परंपराओं की स्थिति कुछ ऐसी ही है।
हमारे माता-पिता और दादा-दादी ने जैसे देखा, वैसा ही किया। लेकिन उन्होंने कभी यह प्रश्न नहीं उठाया कि “यह क्यों होता है?”
यही कारण है कि हम भी कई बार आँख मूँदकर परंपराओं को निभाते जाते हैं—बिना यह जाने कि उनका असली कारण क्या है।
जब युवाओं से पूछा जाता है कि यह परंपरा क्यों निभाई जाती है, तो अक्सर वही उत्तर मिलता है—
“पूर्वजों के समय से चलती आ रही है।”
लेकिन असलियत अक्सर कुछ और होती है।
कई बार किसी विशेष परिस्थिति के कारण शुरू की गई परंपरा समय के साथ अपना मूल कारण खो देती है, और हम सिर्फ उसका बाहरी रूप निभाते रह जाते हैं।
आज का युग विज्ञान और तकनीक का युग है।
इस युग में हमें हर परंपरा और संस्कृति को प्रमाणित करना चाहिए, उसके पीछे का तर्क और विज्ञान समझना चाहिए।
संस्कृति में कुछ भी यूँ ही नहीं जोड़ना चाहिए।
क्योंकि सच्ची हो संस्कृति वही है, जो प्रकृति और विज्ञान दोनों से जुड़ी है।