Shaheed Gangaram Kalundiya ke bare mein vistrit jankariyan “शहीद गंगाराम कालुन्डिया 4 अप्रैल 1982”
पुलिस ने किस प्रकार एक वीर नायक “हो” को मार डाला
एक आदिवासी नेता गंगाराम कालुन्डिया अपने लोगों की दुःखद जीवन को और थोड़ा बेहतर बनाने के लिए उनको संगठित करने का कोशिश किया। वह एक सहासी व्यक्ति था। सन 1965 ई० भारत-चीन युद्ध का एक वीर युद्वा ईमानदारी सच्चा इंसान था। अतः बिहार के बेजोड़ मुख्यमंत्री जगनाथ मिश्र के पुलिस वाले क्या करते हैं?” वे कालुन्डिया के घर की ओर कूच करते हैं वे उनके जाँघ पर गोली मारते, घर सम्पति को लूट लेते और उसके बाद पुलिस हेड क्वटर वापस जाने के रास्ते में मार देते हैं। यही जगनाथ मिश्र की बिहार का कड़वा सच्चाई है। जबकि उनका सरकार हमेशा अत्याचार से दबे हुए लोगों की मदद का बात करते हैं। पत्राकार मसाहुल हक सिंहभूम में कालुन्डिया के गाँव 29 मई 1982 में जाकर उसकी कहानी को लाते हैं और सण्डे सप्ताहिक पत्रिका में छापी है।
कोल्हान के थई पीढ़ अन्तर्गत तांतनगर प्रखंड के छोटा सा गांव ईलीगाड़ा, मौजा थाना संख्या-138 में 20 फरवरी 1942 को लौहपुरुष गंगाराम कालुन्डिया का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम रघुनाथ कालुन्डिया एवं माता का नाम जानकी कालुन्डिया था। गंगाराम कालुन्डिया अपने पिता के सातवें संतान थे। कालुन्डिया उनकी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के ही इलीगाडा से 1957-58 ई० में उत्तीर्ण होकर सन् 1960 ई. को लुपुंगुटू मिडिल स्कूल में दाखिला लिया। इसमें नामांकन के समय इन्होंने अपना नाम गंगाराम कालुन्डिया न रखकर राम नारायण कालुन्डिया के नाम से किया गया। लुपुँगुटू मध्य विद्यालय में सातवें वर्ग में पढ़ते समय ही सेना में भर्ती हो गये। गंगाराम कालुन्डिया अपने निपुर्णता, चतुराई, वीरता एवं अनुशासन का कठरता के कारण सेना में शीघ्र ही सूबेदार का पद प्राप्त हुआ। जैसे ही सूबेदार का पद प्राप्त हुआ सन् 1962-63 ई० में भारत-चीन की लड़ाई शुरू हुई। सूबेदार गंगाराम कालुन्डिया अपने सेना के साथ मिलकर चीनी सेनाओं के छक्के छुड़ा दिये। इस लड़ाई के विजय परिणाम गंगाराम कालुन्डिया की वीरता को देखकर तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने सूबेदार गंगाराम कालुन्डिया को वीरता का पुरस्कार से सम्मानित किया है। सूबेदार गंगाराम कालुन्डिया सेना की सेवा से अवकाश ग्रहण के बाद अपने गाँव ईलिगाड़ा वापस आए और पुरखों के पेशे कृषि कार्य में लग गए।
एक दिन उन्हें अखबार के माध्यम से यह जानकारी मिली कि चाईबासा से पूरब करीब 9-10 किलोमीटर दूरी पर कुजू एवं ईचा गांव होकर गुजरने वाली खड़काई नदी में बहुद्देशीय बाँध परियोजना के अन्तर्गत बाँध का काम शुरू किया जा रहा है। इन बाँध से लगभग 125 गाँव डूब जाऐंगे। इस बाँध के बनने से कोल्हान की 8,585 हेक्टेयर, उड़ीसा की 4,415 हेक्टेयर जमीन डूब जाएगी। जिनमें ग्रामीण कृषकों की 7,075 हेक्टेयर, परती जमीन 1,250 हेक्टेयर और वन भूमि 260 हेक्टेयर चली जाएगी। साथ ही ईचा नहर में 648 हेक्टेयर जमीन लगेगी जिसमें से 470 हेक्टेयर निजी जमीन, 174 हेक्टेयर सरकारी जमीन एवं 40 हेक्टेयर वन भूमि शामिल हैं। इतनी बडी मात्रा में भूमि अधिग्रहण होने की जानकारी से गंगाराम कालुन्डिया के हृदय में विद्रोह की ज्याला भड़क उठी। यहाँ वैसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई थी कि विद्रोह के शिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। यद्यपि सन् 1981 में गंगाराम कालुन्डिया ने लगड़ा गांव (मंझारी) के पूर्णचन्द्र बिरूवा से सम्पर्क कर इस विकट स्थिति का लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने का सलाह भी लिया। तत्पश्चात् गंगाराम कालुन्डिया ने परियोजना से प्रभावित लोगों को सम्पर्क स्थापित कर इसका विरोध में संगठित किया और “ईचा खड़कई बाँध संघर्ष समिति बनाई गई। इसका नेतृत्व उन्होने स्वयं किया। इस समिति के माध्यम से आंदोलन का स्वरूप विरोध किया। इसकी खबर डूब क्षेत्र के अलावे कोल्हान के अन्य गाँवों में पहुँच गई। इस बहुद्देषीय परियोजना की शुरूआत की व्यापक विरोध के साथ हुआ।
इसी क्रम में 3 अप्रैल, 1982 को स्वर्णरेखा डैम के खिलाफ गंगाराम कालुन्डिया ने चालियामा स्थित कार्यालय के समक्ष विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया था। इस आयोजन से तत्कालीन अधिकारी, पदाधिकारियों के अलावे प्रशासन की नींद उड़ गई। सूबेदार गंगाराम कालुन्डिया की सफलता को देखकर साजिश के तहत् अगले ही दिन रविवार 4 अप्रैल, 1982 को सुबह के समय गोली मारी जिसने 20 वर्ष पूर्व सूबेदार गंगाराम कालुन्डिया को वीरता का पुरस्कार दिया था। आईए सुनते हैं पूर्ण घटना का हकीकत इतिहास क्या है?
बिहार राज्य के सिंहभूम जिला मुख्यालय चाईबासा से पूर्व की ओर लगभग 15 किमी दूर में एक बरकुन्डिया गाँव है। बरकुन्डिया गाँव से लगभग 7 किमी दूर में एक छोटा सा आदिवासी गाँव ईलीगाड़ा है। 4 अप्रैल 1982 दिन रविवार को सुबह का समय था, भोर में पूर्ण रूप से सूर्य की रोशनी (लालिमा) आयी ही नहीं थी नींद की मग्न में ग्रामीण सोए हुए थे। गाँव सशस्त्र पुलिस के नौ गाड़िया दो ट्रक, दो चैन, और पाँच जीप बरकुन्डिया से ईलीगाड़ा की ओर जाने वाली दुमिला कच्ची सड़क में जा रहे थे। इन गाड़ियों में करीब 100 पुलिस मैन के अतिरिक्त 64 वीं सी.आर.पी.एफ. के बाटालियन, नजदिक पुलिस थाना मुफ्फासिल, सदर, राजनगर और मंझारी थाना से एवं बिहार मिलेट्री पुलिस और जिला के सशस्त्र पुलिस शामिल थे। ये सारे लोग एक व्यक्ति को गिरफ्तार करने जा रहे थे, आग्नि मार्क आदिवासी नेता और भूतपूर्ण भारतीय नायक सुबेदार संभालने वाला अवर आयोग (कमिशनर) ऑफिसर रामनारायण कालुन्डिया 42 वर्ष को।
इन सारे पुलिस दल को दिशा देने चला था जिला पुलिस उपाधीक्षक डीएसपी डी० के० कुजूर था। उसके हाथ में एक गिरफ्तार वारंट कुर्की जब्ती करने का प्रक्रिया लिया हुआ था। उस गिराप्तार वारंट में अगर कालुन्डिया वहाँ अनुपास्थित रहता है तो उसका घर के सारे सम्पति को जब्त करने का था। उस पुलिस टीम वालों में से एक मात्र असैनिक नगरिक था जिसका नाम जे०पी० चथुर्वेदी था जो कार्यकारी न्यायधीश दण्डधिकारी था। चथुर्वेदी काफी नर्वस थे एवं वह अपने ही जीप में सवार था। यह खबर बरकुन्डिया गाँव तक फैल गई। गाड़ी के घुल व शोर के साथ गाँव वाले जग जाते हैं और गाँव वाले ये भी जान जाते हैं कि पुलिस कहाँ और क्यों इस रास्ता से जा रही है। किन्तु यह अचानक हुआ इसलिए गाँव वालों के पास प्रतिक्रिया करने का समय ही नहीं था। अचानक के कारण गाँव वाले कालुन्डिया को भी सर्तक नहीं कर पाये। जिन्होंने देखा वो वस यही आशा किए कि कालुन्डिया के गाँव पुलिस छापे के लिए जा रहे हैं। कालुन्डिया जबाव में तैयार होंगे मगर क्या वो परम्परागत तीर धनुष से लटकन के साथ अधुनिक हथियार से लैस पुलिस बल का मुकाबला कर पाएगें?
पुलिस बल की छापे की खबर ईलीगाड़ा के बाद तुईबाना के गाँव जो 12 किमी दूर था वहाँ तक फैल गई। आदिवासी ड्रम (डोल) नियमित ताल पर बजने लगा। शब्द ताल फैलाने लगे। तुईबाना गाँव में यह खबर पहाड़ (स्टेशन) के रूप में रूकी। कलुन्डिया के गाँव वाला रास्ता काफी संकीर्ण एवं अवित्रास्य छली था। गाँव पैदल चलकर ही जाया जा सकता था। पुलिस वाले उतर कर पैदल चल दिए कुछ को छोड़ कर जो गाड़ी के रखवाली के लिए रूक गए थे। गाँव के उस रोड में पहला घर रामनरायण कालुन्डिया का पड़ता था बहुत दुर से ही पुलिस वाले ने सावधनी से देखा कि कालुन्डिया के घर से अंधेरा पील रहा था जीवन का कोई चिन्ह उस घर के पास से नहीं आ रही थी हर चीज रूकी हुई थी। तभी पहला अर्लाम बजता है जो एक किमी० दूर टुंगरी ईलीगाड़ा के रास्ते के पीछे से बजता है पुलिस नाकेबन्दी कर देती है। काफी कंकड़ व पत्थर टुंगरी पर बिछा दिए गए थे जिससे गाड़ियों का आवागमन रूक जाए। पुलिसिया कार्रवायी की भनक गाँव वालों को पहले से ही था शायद इसीलिए पुलिसीया रेड के खिलाफ तैयरी किए हुए थे। मगर आक्रमण कब और कहाँ से होगा यह सुनिश्चित नहीं था। इसी संदर्भ में रेड करने गई पुलिस बल इधर उधर से घेराबन्दी कर ली। सी.आर. पी.एफ. द्वारा कालुन्डिया का घर को घेर दिया गया। वे लोग अपने-अपने स्थान ले लिए एवं घेराबन्दी कर दी गई गाँव वालों के घर से अलग कर कालुन्डिया के घर को चारों तरफ से घेर कर सबसे अलग कर दिया गया। कालुन्डिया अपनी पत्नी के साथ अपने घर के दो कमरे में से एक कमरे में सोया था। तभी एक भीड़ के शोर द्वारा उसके घर के दरवाजे को थोड़ने की आवाज आई ऐसा लग रहा था कि जैसे कई लोग दरवाजे को थोड़ने का प्रयास कर रहे हों। भ्रांतविमूड घबराय हुआ अद्रनिद्र में ही कालुन्डिया ने तेज आवाज लगाई और पूछा कौन है? कोई उत्तर दुसरे तरफ से नहीं आया। दरवाजा को तेजी से पीटना चालु रहा। उसे लगा कि डकैत उसके घर को लुटने आए है कालुन्डिया ने अपना तलवार निकाला उसकी औरत बिरंग कुई (36) वर्ष ने दरवाजा खोलने का प्रयास किया मगर कालुन्डिया ने उसे रोका और खुद दरवाजा खोलना चहा उन्होंने यह सोच कर किया कि वह आने वाला खतरा को चुनौती दे सकता है। वह दरवाजा खोलने लगा और यहीं उसकी पत्नी उसके पैर पर गिर रही है। तभी एक शक्तिशाली तेज रोशनी से चमकता ट्रॉर्च उसके चेहरे पर पड़ा। क्षण भर के लिए वह रोशनी से अंधा हो गया उसकी स्त्री ने देखा कि एक रुपी समान ड्रेस के कई लोग लाठी और बन्दुक के साथ खड़े थे। उनमें से एक ने उसकी ओर बन्दुक दहाड़ने लगी। कालुन्डिया गिर पड़ा उसके दाएँ जाँघ पर गोली मार दी गई साथ ही साथ उनकी स्त्री (विरंग) को भी मार पीट किया गया। यह चिंखी और मैदान के तरफ दौड़ पड़ी वह तब तक दौड़ी जब तक उसका घर पीछे ना छूट जाए सी.आर.पी.एफ के जवानों ने देखा उसे भागते हुए मगर कोई गोली उस पर नहीं चलाई। वह दौड़ते-दौड़ते नजदीक के तलाब में गिर पड़ी। इसी बीच में गाँव वाले जाग गए बिना समझे गाँव वालों ने हमला करने की सोची मगर कई पुलिस कर्मी को देखकर वो लोग घबराहट से डर कर छुप गए। दूर से ही उन्होंने देखा कि कालुन्डिया को मार पीट कर घर से निकाला गया कुछ पुलिसकर्मी उसके गोली लगने वाले जगह का निरीक्षण कर रहे थे। गाँव वालों को एहसास हुआ कि इस जगह पुलिस वालों को चुनौती नहीं दी जा सकती है क्योंकि यहाँ पुलिस हथियारों से लैस अपने अपने पोजिसन पर काफी सजग थे। इसीलिए तेजी से छिपते-छिपते वो लोग टुंगरी के तरफ बढ़े जहाँ पहले से ही पत्थर व अवरोधक बिछाऐ गए थे। पुलिस अपना उद्देश्य 10 से 15 मिनट में लुट खसोट करके मुख्यालय के तरफ लौटने लगी। रास्ते में थोड़ा सा विरोध ढुंगरी में हुआ जहाँ गाँव वालों ने पत्थर फेंककर किया मगर इसका नतीजा कुछ नहीं निकला पुलिस बल आराम से वहाँ से निकल गए। तुईंबाना में आदिवासी हमला के लिए तैयार हो रहे थे हजारों की संख्या में तीर धनुष के साथ आदिवासी जुट गए। चाईबासा से लेकर बरकुन्डिया तक का रोड आदिवासी द्वारा घेर दिया गया। झोपड़ी, टीले, पहाड़ के पीछे छिप कर हमले के लिए आदिवासी तैयार हो गए। ईलीगाड़ा के साथ-साथ पास के गाँव कुलाबुरु के लोग ने भी जुटने लगी। उसी समय पुलिस ट्रक में बैठे कालुन्डिया लोगों से पत्थर ना फेंकने की गुजारिश कर रहा था। हजारों लोगों ने उसे यह बिनती करते देखा। पुलिस द्वारा कालुन्डिया पर हमला को देखकर मजिस्ट्रेट (दण्डाधिकारी) जे.पी. चतुर्वेदी विचलित व हत प्रभ हो गए। तभी काफिले एवं जीप पर हमला कर दिया गया। दण्डाधिकारी को लगा कि उनसे गोली खुले तौर पर चलाने की अनुमति मांगी जाएगी। गुवा नरसंहार (1980) की यादें दण्डाधिकारी के मन में अभी भी ताजा ही थी। बिहार मिलट्री पुलिस द्वारा 59 (छोटा) राऊंड गोली गुवा काण्ड में चलाया गया था एवं मजिस्ट्रेट वहाँ से भाग गए थे। इसी तौर पर चतुर्वेदी ने भी सोचा कि यहाँ से हट जाया जाए। उसी समय उनके जीप पर हमला पत्थरों द्वारा हुआ था मजिस्ट्रेट भाग गए। पाँच राऊंड गोली चली, किसी के हताहत होने की खबर नहीं थी। पुलिस जे.पी. भी कालुन्डिया द्वारा यह दिखाने का प्रयास किया जा रहा था कि वह ठीक है चोटें मामुली है। ट्रक पर लहराते कालुन्डिया ने 1965 के पाकिस्तान युद्ध के दौरान मिले सेवा बहादुरी मेडल वाले जलवे को दिखाते हुए बारबार शांत होने का आग्रह भीड़ से कर रहा था। पुलिसिया जुर्म से गुस्सा कर मंझारी से लेकर चाईबासा तक के रोड को आदिवासियों ने खोद कर क्षतिग्रस्त कर दिया ताकि कालुन्डिया को पुलिस ना ले जा सके। उसी शाम पाँच बजे के दौरान चार पुलिस जीप दुसरे दुसरे रास्ते से कालुन्डिया को लेकर चाईबासा लौटती है। उच्च पदाधिकारी जिसमें जिला आरक्षी अधीक्षक रंजीत वर्मा अतिरिक्त उपमण्डल दण्डाधिकारी जी.एस. ठाकुर, उपमण्डल दण्डाधिकारी सी.पी. मण्डल और डी.एस. पी. कूजुर (जिसके नेतृत्य जो पुलिसिया कार्रवाई हुई) की बैठकी तथ्य विश्लेषण जाँच पड़ताल के लिए होती है, ऐसा प्रतीत व दिखाने के लिए कि वो कालुन्डिया के पत्नी व भाई से मिलते हैं तो वो केवल घर से जब्त की गई चीजों के बारे में बताते हैं। सनातन कालुन्डिया ने बताया कि वो लोग कालुन्डिया के बारे में कुछ भी नहीं बताए। यो ना ही कोई और जो कालुन्डिया को चाईबासा वाले रोड से ले जाते हुए देखे थे ये आभास थी ना कि कालुन्डिया को मार दिया गया होगा। अधिकारीक तौर पर कोई कुछ भी नहीं कह रहा था। अधिकारी केवल जब्त की गई व खोई हुई सामग्री का ब्यौरा तैयार कर रहे थे। जिसमें 12 बोर वाले बन्दुक उसका लाइसेंस जो कालुन्डिया के नाम था के साथ सिलाई मशीन, साइकिल, रेडियो व आभूषण थे। पुलिस अधिकारी टुंगरी के पास जाकर वहीं से गाँव वालों को यह समान लौटाने का निर्णय किये। गाँव वाले उलझन में पड़ गए तभी एक कृत्रिम (नकली) रिश्तेदार के रुप में लंकेश्वर कालुन्डिया आता है जिसे पुलिस वाले जानबूझकर किनारे ले जाकर रामनारायण कालुंडिया का जब्त सामान लौटा देते हैं। लेने वाला लंकेश्वर जमशेदपुर में काम करता था और वह कहीं से भी कालुडिया का शुभचिन्तक व रिश्तेदार नहीं था। लंकेश्वर कालुंडिया (नकली रिश्तेदार) जिसका इस घटना क्रम में प्रादुभार्य आकस्किम रुप में पुलिसिया सहयोग से हुआ उन्होंने एक हक्का बक्का करने वाला समाचार सुनाया। उसने बताया कि रामनारायण कालुन्डिया की मृत्यु सदर अस्पताल ले जाने के क्रम में हो गई उसने कहा वास्तव में उसके मृत्यु के जिम्मेदार आदिवासी लोग है पुलिस तो भीड़ से हटने के लिए कह ही रही थी मगर पुलिस का रास्ता रोका गया। घायल कालुन्डिया को अस्पताल ले जाने में इससे विलम्ब हुआ जिससे उसकी मृत्यु हो गई। उसने गाँव वाले से कहा कि इस बात का प्रबन्ध किया जाए कि कालुन्डिया का मृत शरीर को सदर अस्पताल से ले आया जा सके।
(गंगाराम कालुडिया) रामनारायण कालुंडिया कौन थे और क्यों उन्हें मारा गया। जिला उपायुक्त जो जिला दण्डाधिकारी भी थे उन्होंने एक नवरित व अविवेकी कथन में कहा कि कालुंडिया एक कठोर अपराधी था। लेकिन स्थानीय आदिवासियों के लिए वह एक नेता व नायक था। 16 साल का उसका काफी प्रभावित करने वाला सेना का सेवा था। ऐच्छिक सेवानिवृति 1976 में उसके द्वारा लिया गया। सैन्य सेवा उसकी अनुकरणीय व निदर्शनात्मक रही है इसके अतिरिक्त पुलिस के पास उसके खिलाफ अभियोग के कोई सबुत नहीं है।
आदिवासियों के लिए कालुन्डिया एक सपन्न व समृद व्यक्ति था। उसके पास 15 एकड़ जमीन ईलीगाड़ा में था। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जो उस वक्त एक उग्र राजनीतिक संगठन था जिसके संसद शिबु सोरेन व सहयोगी वामपंथी संसद ए. के. राय थे। उनके द्वारा आदिवासियों के हित की लड़ाई काफी उग्र तरीके से लड़ी जा रही थी। यही मंच कालुन्डिया को मिला उसने भी आदिवासी की मदद करने को ठानी।
कालुन्डिया मोर्चा पार्टी में शामिल हो जाता है एवं सैन्य पृष्ठभूमि होने के कारण गाँव वाले उसे अपना नेता बना लेते हैं। लेकिन झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के कैडर में कालुन्डिया का प्रभाव मात्र एक समान्य कार्यकर्ता का ही था। उसने आदिवासी से जुड़े मुद्दों की ओर देखना शुरु किया। जंगल व खनन के मुद्दों में केवल संभ्रात वर्ग ही नहीं था जिसके कारण मुद्दा काफी विशाल था तभी 480.9 करोड़ की स्वर्ण रेखा परियोजना भी विश्व बैंक द्वारा अनुदान प्राप्त है का मुद्दा आया, जिससे चार बाँध बनने थे। ये परियोजना बिहार सिंचाई विभाग द्वारा लायी गई थी। चार बाँध में एक बाँध कालुंडिया के गाँव के काफी करीब था। कालुन्डिया का काफी प्रभाव उस गाँव में था। कालुन्डिया स्वर्ण रेखा परियोजना के अन्तर्गत बनने वाले चांडिल डैम आदि पर अपना पक्ष स्पष्ट करता है। वित्तीय मुआवजा के बजाए वहाँ के आदिवासियों ने जमीन के बदले जमीन की माँग की। उसके कई शुभचिन्तक व प्रोत्सहन कर्त्ता बने। उनसे अधिकतर आदिवासी निर्दोष व साधारण व समान्य जनजातीय लोग थे। ये जनजातीय लोग कालुन्डिया व मुक्ति मोर्चा के समर्थन में कुछ भी करने को तैयार थे। इसका कारण स्पष्ट था क्योंकि जो उनके इलाके में दो बाँध बनने वाले थे उसका सीधा फायदा बाहरी (दिक) लोगों को था। किन्तु कालुंडिया के समर्थक में सिदियू तियु भी था। (ज्यादा जानने के लिए देखें दुसरे व्यक्ति का विचार) ये व्यक्ति पढ़ा लिखा महत्वकांक्षी एवं अन्वेषण के लिए आतुर रहता था। व्यंग्यात्मक तौर पर देखा जाए तो डी.एन. चम्पिया जो कांग्रेस के मंझारी से विधायक थे जो चिंगारी को काफी सरल कर दिए. मई/जून में उन्होंने स्थानीय प्रशासन से उस गाँव का व्योरा माँगा जो बाँध बनने के क्रम में विलय हो रहे थे। स्थानीय प्रशासन उन्हें प्रयोगात्मक तौर पर 45 गाँव का नाम सौंपा। चम्पिया जी ने उसे सार्वजनिक कर दिया। तत्काल प्रभाव से स्थानीय लोगों में रोष एवं गुस्सा आया। इस गुस्से को राजनीतिक रंग शिबु सोरेन ने श्याम सुन्दरपुर में सभा करके दिया। उन्होंने कहा मोर्चा आप लोगों की लड़ाई (बाँध बनने के खिलाफ वाला) लड़ेगा। 22 जुलाई 1981 की इस सभा ने ही कालुंडिया को काफी प्रेरित किया। उसी दिन सभा के खत्म होने के बाद आदिवासी द्वारा बाँध के पास के निमार्णाधीन गोदाम को ध्वस्त कर दिया गया। कुछ दिन के बाद रामनारायण कालुंडिया के घर के आंगन में खरखई बाँध विरोध समीति की बैठक हुई जिसमें कालुंडिया को सचिव एवं सिदियू तियु को अध्यक्ष बनाया गया।
विरोध करने वाले समीति की माँग काफी साधारण थी अगर इसे वस्तुनिष्ट तौर पर देखा जाए तो काफी संवैधानिक भी थी। अगर सरकार आदिवासी जमीन को ले रही है तो बदले में जमीन क्यों नहीं देती। वित्तीय पैसा वाला मुआवजा नहीं चाहिए। समीति की माँगे इस प्रकार थी मुआवजे के तौर पर जमीन दी जाए। सरकार अगर जमीन ले रही है तो बदले में काफी कम मुआवजा पैसा आर्थिक तौर पर दे रही है। आदिवासी मुख्यतः किसान हैं। वो पैसा लेकर क्या करेंगे जब उस पैसे से कहीं जमीन नहीं खरीद सकते। इसके साथ ही कई और मुद्दे उठाए। ये भी प्रचारित करवाया गया कि विरोधी लोग यहाँ के आदिवासियों को विस्थापित करवाकर उत्तरी बिहार भेज देगें। इस कारण से आदिवासी अपने मातृभूमि से अलग हो जाएगें। इस तरह के प्रचार ने यहाँ के आदिवासियों को और प्रेरित एवं उग्र किया जिसका नतीजा यह हुआ कि उसी साल 1981 में तीन और हमले निमाणाधीन बाँध स्थल के गोदाम, कार्यालय और क्र्वाटर पर हुए।
यह सारे हमले सरकार द्वारा कोई भी सकारात्मक कदम ना उठाए जाने के कारण हुए। लेकिन 19 अगस्त 1981 के एक हमले ने जो चलियामा साइट (स्थल) जहाँ बाँध निमार्णाधीन पर हुआ ये बाँध निर्माण के सारे गतिविधि को ठप कर दिया सारे कार्य अवरोध व रोक दिए गए।
इसी दौरान स्थानीय प्रशासन द्वारा गैर मान्यता प्राप्त यह बाँध विरोधी संगठन ने विस्थापन एवं पत्र निकालने एवं बाँटने शुरु कर दिए। पत्रों के माध्यम से राज्य द्वारा बनाए जाने वाले बाँध के विरोध में पर्यवेक्षण व सूचना दिया जाने लगा। इनमें से कई कागजात व ब्यौरा काफी उत्तेजक वाले थे इस तरह के सोच कालुन्डिया के कार्यों के बारे में रखने वालों में दण्डाधिकारी मिश्रा भी थे। चीजें हाथ से फिसलने लगी। कालुंडिया का उस क्षेत्र में काफी प्रभाव था। कुछ लोग आदिवासियों में भी कालुन्डिया के विरोधी थे। मगर विरोध का कारण ज्यादातर राजनीतिक था। कांग्रेसी सांसद बागुन सुम्बरुई के समर्थक एवं मोर्चा समर्थक के बीच का विरोध को इस रूप में देखा जा सकता था। पुलिस अलग से कालुन्डिया एवं उनके नजदीकी लोगों पर शिकंजा कसना शुरु कर दिया। किन्तु प्रशासन कालुन्डिया के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं जुटा पाया ना ही पुलिस के हाथ में बाँध विरोधी संगठन के खिलाफ भी कोई साक्ष्य मिला। पटना से निर्देश के बाद दबाव वश जिला दण्डाधिकारी ने कार्य फिर से शुरु करवाया मगर अभियंता (इंजीनियर) ने बिना
सुरक्षा के वहाँ जाने व कार्य करने से मना कर दिया।
अगस्त 1981 के उस समय में जिला दण्डाधिकारी (उपायुक्त) द्वारा एक बैठक का आयोजन किया गया जिसमें गाँव के परम्परागत प्रधान (मुण्डाओं) के साथ हुआ। उसी बैठक में कालुडिया जो अभी तक अज्ञात थे का परिचय उपायुक्त के समक्ष हुआ। यही आकस्मिक घटना ने गंगाराम का परिचय पुलिस प्रशासन ने करवा दिया। उसी समय से रामनरायण के बारे में यो जानने लगे किन्तु गंगाराम कौन है का सवाल अब भी था। कुछ समय बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि दोनों एक ही व्यक्ति थे। पटना से आए कई रणनीतिकार ने तालिका एवं ग्राफ के माध्यम से आदिवासी लोगों को बाँध बनने के फायदे बताए एवं यह भी बताया कि इससे उनका कैसे कल्याण होगा। किन्तु उनके द्वारा ये सारे कथन व प्रयास बेकार हुए। कालुंडिया को लेकर अनिश्चयी था। कालुंडिया के अनिश्चयी होने के कारण अन्य लोग भी शंकित थे। कुछ छिटपुट धरना के कारण बाँध निमार्ण कार्य चार महीने तक बंद रहा। उन धरनाओं में प्रमुख व प्रभावकारी लोरगाड़ा स्थान में बाँध निमार्ण स्थान पर हमला हुआ था। यह धरना सुबह के समय हुआ था जिसमें गाँव वालों ने निर्माणाधीन बाँध पर तैनात चौकीदार को मारा पीटा। यह हमला संघर्ष समिति के द्वारा किया गया जिसकी अध्यक्षता सिदियू तियू की नेतृत्व में हुआ। अगले वर्ष 23 जनवरी को जिला उपायुक्त ने दूसरी बैठक बुलाई यह बैठक उपायुक्त के चेम्बर में हुई। इस समय के बैठक में मुण्डा के साथ साथ मुखिया एवं अन्य प्रभाव लोगों को पूर्वयत बुलाया गया मगर इस बैठक में बागुन सुम्बुरुई तत्कालीन सांसद को भी बुलाया साथ में कई विधायक को भी बुलाया गया ताकि समस्या का समाधान हो सके। कालुन्डिया सभा में शामिल नहीं हुआ उसका मानना था आदिवासी क्यों नरम रुख अपनाए। उपायुक्त काफी खुश हुआ लेकिन उसकी खुशी स्थाई नहीं थी कालुंडिया समझौता करने के नियत में नहीं था। तभी 26 फरवरी 1982 की धरना ने सारे प्रशासन को हिला कर रख दिया। 26 फरवरी एक महत्वपूर्ण दिन था क्योंकि उससे पहले स्थानीय प्रशासन को अपने शत्रु के बारे में पता नहीं था। तीन अभियन्ता जो सिंचाई विभाग से थे नहर के पास सर्वे कर रहे थे यह सर्वे सिदियू तियू गाँव के पास का नहर था। सिदियू तियू के गाँव “बिटा” थे तियू ने तीन अन्य आदिवासियों के साथ उन तीनों अभियंताओं को अगवा कर लिया। उन पर अगवा से पूर्व हमला किया गया। अगवा करने के पश्चात् उन्हें बिटा गाँव वालों की भीड़ हो गई। उन्होंने पीड़ित अभियंता को अज्ञात स्थान पर ले गए। अभियंता उन स्थानों से परीचित नहीं थे। उनके साथ क्या हिंसा हुई छोड़कर उन अभियंता को कुछ नहीं पता था क्योंकि उन्होंने गाँव के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। पुलिस को वह गाँव के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। बाद में पुलिस द्वारा यह अंदाज लगाया गया कि सभवतः वह गाँव कुलाबुरु ही होगा जो कालुंडिया का नजदीक वाला गाँव था जिसमें उसका प्रभाव था। सरकारी पिट्टू व सरकारी कर्मचारियों को आदिवासी खासकर पुरूषों व विशेषकर महिलाओं ने झाडु एवं डंडा से मारा। ये सारे चीजों ने परिस्थिति को और ज्यादा खराब कर दिया। बैलगाड़ियों को घुसेड़ा गया उसी बीच ये कुछ लोग ने बेलुआ तेल (सोसो) को उन लोगों के ऊपर फेंका जो काफी अम्लीय एवं त्यचा को नुकसान पहुँचाने वाला था। ब्रश एवं झाडू को इंजीनियर (अभियंता) के मलाशय के द्वार पर घुसेड़ दिया गया। तत्पश्चात उसके बाद आदिवासियों ने अभियंताओं को जाने दिया। सौभाग्य वश बेलुआ तेल के बासी (जीण) होने के कारण अम्लीय गुण काफी कम था जिससे शरीर के अंग जल एवं दुर्घटना ग्रस्त हो गये मगर वो लोग आप बीती कहानी सुनाने के लिए बच गए। अभियंताओं पर जो घिनौना कृत्य हुआ सुनकर प्रशासन काफी अति क्रोद हो गया। अभियंता वाले केस में कालुडिया का इस धरना से सीधी तौर पर संलिप्तता का पता नहीं चला। IPC के खण्ड 147, 148, 149, 342, 323, 332, 379, और 426 की धाराओं के अन्तर्गत केस रजिस्ट्रेशन हुआ। यह केस राजनगर थाना में हुआ। कुलाबुरु जो इलिगाड़ा के काफी नजदीक का थाना था के सदर इंस्पेक्टर नगेश्वर प्रसाद सिंह कहते हैं कालुंडिया उनका नेता है बिना उसके निर्देशन के कुछ नहीं हुआ होगा।
कालुंडिया की औरत व इलिगाड़ा के लोगों ने कहा कि कालुडिया का इस धरना से कोई लेना देना नहीं है वह 26 फरवरी की धरना जो शुक्रवार को हुई थी और उसके अगले शुक्रवार को भरभरिया हाट गया था। लेकिन पुलिस प्रशासन के नजर में कालुंडिया अब प्रतिक्षित व्यक्ति बन चुका था। कालुंडिया पर सदर थाना में आइपीसी की धारा 121, 124ए, और 120बी के तहत् राजद्रोह का केस दायर किया गया। देशद्रोह बनाने के लिए देशद्रोह की धारा लगाई गई। यह एक गम्भीर मुद्दा था यद्यपि आदिवासी भी यह सोचने को मजबुर हो गए कि कैसे एक व्यक्ति जो भारतीय सेना का मदद बिना स्वार्थ के दिल व दिमाग से करता था पर इस तरह के आरोप कैसे लगे। कैसे यह व्यक्ति राजद्रोह था पृथकतावादी आन्दोलन का एक हिस्सा हो सकता है।
पृथकतावादी आंदोलन जिसमें कालुंडिया को षडयंत्र करके संयोजित रुप से फंसाया गया जड़ विलकिल्सन नियम एवं उसके उपबंधों 1839 में था। यह नियम यह माँग करता है कि कोल्हान के प्रशासकीय व अन्य व्यवस्था के लिए सिंहभूम जिले के अन्तर्गत आने वाले कोल्हान व पोड़ाहाट के आदिवासी इलाकों को अलग से स्वयत्त भाव्यता दी जाए। उनका मानना भी यह था कि यहीं विलकिल्सन नियम का मुख्य उद्देश्य भी था। इसी धारा के उपबंधों का हवाला देकर वो लोग माँग करने लगे कि निरक्षर व पिछड़े आदिवासी इलाकों में व्याप्त व प्रशासन के लिए अलग प्रशासकीय इकाई का गठन हो जो अन्य प्रशासकीय इकाई से अलग हों।
31 मार्च 1981 को पढ़े लिखे आदिवासी समूह एक साथ कोल्हान रक्षा संघ के झंडे तले कोल्हान राज्य की माँग अलग से करने लगे। इसकी अध्यक्षता नरायन जोंको ने किया। जोंको स्वघोषित कोल्हानिस्तान का अध्यक्ष बना बैठक उसी क्रम में उसने विलकिल्सन रुल के तहत् कोल्हान की माँग हेतु अन्दोलन भी चलाया। उसी रुप से उसका अन्य साथी सी.ए. टोपनो जेनेवा में यह माँग उठाने चले गए उनके साथ अन्य सहायरोधी व सक्रिय कार्यकर्ता अश्विनी कुमार सवैयाँ भी थे। पुलिस बताती है कि इन सभी लोगों के साथ कालुंडिया के संबंध थे। पुलिस यह तथ्य 31 अक्टूबर 1981 के पत्र को साक्ष्य बनाकर कह रही थी जिसमें कालुलुंडिया स्थानीय सरकारी कार्यकर्ता को संबोधित करता है एवं कहता है कि वह कोल्हान रक्षा संघ के बारे में साथ रहा है। उसी वर्ष 16 मई को एक विशाल सभा का आयोजन चाईबासा में हुआ है। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिव सोरेन उसको संबोधित करते हैं। शिव सोरेन से शंकर के रुप में कालुंडिया जैसे कर्मठ व समार्पित कार्यकर्ता का परिचय करवाया गया। उसने भी सभा को संबोधित किया इसी दौरान पुलिस ने कालुंडिया को चिन्हित कर लिया। चार दिन बाद उपायुक्त महोदय ने एक विशेष कामयाबी हासिल की एक विशाल जनसभा को संबोधित तेलाई चलियामा में करके उसने बाँध के बंद कार्य को फिर शुरु करवा दिया। 22 मार्च को एक विशाल पुलिस जिसका नेतृत्व डी.एस.पी. यादव कर रहे थे उसने तियू के बिटा वाले घर में छापा मारा। बदले में कालुंडिया 250 सशस्त्र आदिवासियों के साथ आकर उन पर हमला कर देता है। वे लोग घेरा जाता है और सीआरपीएफ के छोटे से सशस्त्र बल के आने के बाद आठ आदिवासी गिरफ्तार हुआ है। कालुन्डिया भाग निकला।
मगर वह अगले दिन ही मारा जाता है। कब और कैसे कालुन्डिया मारा जाता है उसकी लाश काफी विकृत अवस्था में इलीगाड़ा में 5 अप्रैल को लाई गई। कालुन्डिया की औरत, भाई व मुण्डा मानसिंह एवं अन्य के अनुसार कालुंडिया के दाएँ सीने पर गहरा घाव का निशान था। उसका शव काफी विक्षिप्त अवस्था में था शरीर के कई हिस्से टुटे हुए थे। यौनिक भाग शरीर से गायब थे आँखे में छेद था। लाश काफी विक्षिप्त अवस्था में था इसीलिए गाँव वाले यह निर्णय ही ना कर पा रहे थे कि दाहसंस्कार करें या शवाधान (दफन) किया जाए। अतः ये दाहसंस्कार किया गया मगर प्रताड़तना के साक्ष्य की तस्वीर उसी गाँव के एक पेशेवर युवक ने ली जिसका फोटो चित्र उतारा। शव को जलाने से पहले उसने शव की अवस्था का तस्वीर उतारी। गाँव वालों के अनुसार कि उसके राख में शव जलने के पश्चात् शरीर में प्रताडीत के दौरान प्रयोग किए गए तत्व औजार, शीशा राख में मिले जिसका वजन करीबन 200 ग्राम था। इस तरह से कोल्हान के धरती माँ यह वीर सपूत उद्घोष के साथ निडरता, सहसी इस दुनिया से 4 अप्रैल 1982 को चल बसे।
वस्तुतः पुलिस की कहानी भिन्न थीः- एक प्राथमिकी में इंस्पेक्टर नगेश्वर प्रसाद सिंह यह दावा किया है कि कालुन्डिया को वहीं तीन गोली मारी जाती है क्योंकि वह पुलिस से विरोध कर रहा था पुलिस की कहानी ऐसी चलती है कि जैसे “पुलिस कालुन्डिया का घर को घेर लेती है दो व्यक्ति घर से निकलते हैं एक तलवार लिए दुसरा 12 बोर का रिवाल्वर लिए। बन्दुक लिए व्यक्ति कहता है कि रिवाल्वर वाला आदमी ट्रीगर को दबा रहा था ऐसा देखकर उन्होने अपने बन्दुक से गोली चला दी मगर उसने नहीं चलाया। वह घायल हो गया एवं भाग गया। तब खड्ग (तलवार) लिए हुए व्यक्ति ने बन्दुक संभाली तभी घायल व्यक्ति ने तलवार से राजनगर थाना के ओसीएम कच्छप पर हमला किया” ताजुब की बात यह है कि एफआईआर में यह नहीं बताया गया कि जब तलवार वाला हमला किया तो बन्दुक वाला क्या कर रहा था। कच्छप ने अपने बचाव में दो गोली चलाई एवं बन्दुक के साथ वाला व्यक्ति वहीं गिर गया। ये सब तमाशा के बाद पुलिस दावा करती है कि जिसे गोली लगी वह व्यक्ति कालुंडिया ही था उसकी पहचान इसी रुप में हुई। उसकी पहचान कैसे हुई? यह एक थैला लिए हुए था जिसमें दो जिन्दा कारतुस थे बन्दुक का लइसेंस जो रामनारायण कालुंडिया के नाम से था के साथ कोल्हान रक्षा दल की पुस्तक “कोल्हान की चिंगारी” एवं झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की पुस्तक ‘झारखण्ड आन्दोलन’ था मगर इस पुलिसिया रिर्पोट में दो कमी थी। जब पुलिस द्वारा दो गोली चलाई गई तो एक कारतुस ही क्यों कालुन्डिया को लगा। किन्तु डॉ. ए.के. सिन्हा सदर अस्पताल के डॉक्टर जिन्होंने कालुन्डिया का पोस्टमार्डम किया कहते हैं कि वो एक गोली व एक कारतुस से घायल था। क्या दुसरी गोली जिसे कच्छप ने चलाया था कालुन्डिया को नहीं लगी। डी
एस.पी. कूजुर कहते है कि हमलोग निर्दोष है। ये हो सकता है कि दुसरी गोली निशाना चुक गई हो। दुसरा विरोधाभास अधिकारिक रुप से समय को लेकर है कि किस वक्त घटना घटी। डी.एस.पी. कुजूर के अनुसार सुबह पाँच बजे घटना हुए 1 घंटा पूरा होने में लगा। पुलिस 8.30 प्रताकाल में लौटती है उसी समय अस्पताल उसे ले जाया गया जहाँ वह मृत घोषित हुआ है। वहीं दुसरी ओर अधिकारिक सूत्र कहते हैं कि इंस्पेक्टर सिंह दावा करते हैं कि वास्तविक एफआइआर में धरना 4 अप्रैल 1982 को सुबह 4.30 बजे हुई। पुलिस सुबह सात बजे चाईबासा के लिए निकलती है साढ़े सात बजे चाईबासा पहुँचती है किंतु बाद में एक संसोधित कमरा नोट में इसे टंकण कमी बताया गया। कहा गया कि पुलिस 8 बजे निकलती है 8. 30 में पहुंचती है 7.30 गलती से मुद्रित हो गया था।
पुलिस कालुन्डिया को अस्पताल ले जाने के समय को यथोचित ठहराने का प्रयास करती है। मगर सच्चाई यह है कि मुठभेड़ सुबह 4 बजे हुआ मुश्किल से 15 मिनट में यह खत्म हो गया तीस से पैंतालिस मिनट का अवरुद पुलिस का आदिवासियों से मुठभेड़ में हुआ पाँच बजे तक सब खत्म हो चुका था फिर 8. 30 बजे तक कालुन्डिया के साथ क्या किया गया। चाईबासा से द.पूर्व के लुपुंगुटू व नरसन्डा के गाँव वाले कहते हैं कि जीप कहीं नहीं रुकी कालुन्डिया को पुलिस वालों ने तब तक प्रताड़तना दी जब तक वह मर ना जाए।
डॉ.ए.के. सिन्हा आवेग पूर्ण कोई साक्ष्य से इनकार कर देते हैं जिससे यह पुष्टि हो कि कालुंडिया के लाश व शरीर के साथ यातना पूर्ण व्यवहार हुआ है। पोस्टमार्डम के समय लाश विकृत नहीं था ऐसा कहना डॉ सिन्हा का था वह कहते हैं किसी ने उसे जरुर मारा होगा मुझे नहीं पता मेरा काम यह नहीं है कि बताऊँ किसने मारा होगा। मेरा काम यह बताना है कि मृत्यु कैसे हुई। मृत्यु एक गोली लगने से हुई। डॉ. कहता है कि यौनिक भाग उसके शरीर में थे उसमें कोई शिशा व जख्म के अन्य निशान नहीं थे। मगर इसकी संभावना है कि कुत्ता व सियार उस रात 4/5 कालुडिया की लाश पर धावा बोल दिए हो। मुर्दा घर सुरक्षित स्थान नहीं है डॉक्टर ने कहा क्या तुम यह नहीं जानते। किंतु क्यों सियार व कुत्ते केवल यौनिक अंग पर ही शिकार करेंगे वो भी एक मरे हुए व्यक्ति के चाईबासा में इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। सिवाय डी एस पी कूजुर के। कूजुर खिलखिलाकर हँसते हुआ विवादित रुप से कहता है कि हो सकता है कि जानवरों में यौनिक इच्छा हो या सेक्स करने की लालसा हो।
गंगाराम कालुन्डिया के शहीद हो जाने के बाद इनके आंदोलन की गति धीमी पड़ गई। परन्तु आन्दोलनकारियों के विरोध की आग भीतर ही भीतर सुलग रही थी। ईचा खड़कई बाँध संघर्ष समिति की बागडोर जयपुर गांव के श्री जयपाल देवगम ने संभाली। किन्तु परिवारिक स्थिति के कारण उसने महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया। इनके बाद रोलाडीह तांतनगर के क्रांतिकारी स्व० शंकर सुन्डी ने सन् 1986 में पदभार को ग्रहण किया। शंकर सुन्डी के नेतृत्व में यह आंदोलन एक बार फिर राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गया। इस दौरान उन्होंने ईचा खड़कई बाँध विस्थापन के दर्द को विश्व के लोगों के समक्ष रखा। कई राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय मीडियाकर्मियों ने बाँध के दास्तवेज, परियोजना संबंधी फिल्मी डाक्यूमेंट्री बनाकर पूरे विश्व के अलावे डैम निर्माण की राशि लगाने वाले विश्वबैंक तक को इसकी जानकारी दी। विश्वबैंक ने इस बात को तुरंत संज्ञान में लेते हुए बाँध निर्माण की राशि पर रोक लगा दी थी जिससे बाँध निर्माण का कार्य रूक गया।
अपनी विचार यह निर्माण कार्य पहले बिहार सरकार की देखरेख में था, लेकिन 15 नवम्बर 2000 को बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बनने के उपरांत यह झारखंड सरकार के अधीन आ गया। झारखंड राज्य बनने का मुख्य उद्देश्य यहाँ के आदिवासी मूलवासियों की जल, जंगल जमीन जैसे प्रकृतिक संसाधनों से अटूट संबंध वाले समुदायों की भाषा-संस्कृति, परम्परागत सामाजिक व्यवस्था एवं अस्थित्व को बनाये रखना एवं उनका सर्वांगीण विकास करना है। बावजूद झारखंड, उड़ीसा एवं बंगाल सरकार मिलीभगत कर केन्द्र से मदद लेकर इस स्थागित परियोजना को पुनः चालू कर पूरा करना चाह रही है। यदि यहाँ डैम बन जाती है तो लाखों लोगों को उजाड़कर बेघर हो जाएगी। क्या यही अलग झारखण्ड राज्य बनाने का सपना था? सरकार एक तरफ यहाँ के आदिवासी मूलवासियों को विकास की मुख्य धारा में जोड़ने की बात कहती है दूसरी तरफ इस बाँध को बनाके विकास के नाम पर सीमान्त किसानों की भूमि अधिग्रहण कर उजाड़ना चाहती है। क्या यही सच्ची विकास है यदि नहीं तो क्यों? ऐसी परिस्थिति में सुवर्णरेखा परियोजना विकास का मंदिर है या विनाश का कब्र है? साथियों सरकार व पुलिस प्रशासन ने आदिवासी वीर सपूत गंगाराम (रामनरायण) कालुन्डिया को बबार्रता पूर्वक एक कुत्तों से भी बदतर मारा गया।
धन्यवाद!
जोहार !
लेखक मानकी तुबिड युवा जुमुर संयोजक टीआरटीसी गुईरा चाईबासा