Prthvee kee utpatti aur mage porob
पृथ्वी की उत्पत्ति और मगे पोरोब
Ho Society ke anusar Prithvee kee utpatti aur mage porob-मागे पर्व कहने से परिचय साधारणतः मालूम पड़ता है आदि सांस्कृतिक त्योहार का बोध होता है। किन्तु अर्थ के आधार से देखा जाय तो एक रोचक और गहन प्रतीत होगा। क्योंकि मागे पर्व दो शब्द (मागे + पर्व) के संयोग से बना है। इसी दृष्टिकोण से और आदि संस्कृतिक के रहस्य पर मागे का अर्थ “माता” कहने का तात्पर्य है संस्करण में माँ का स्थान बहुत ऊँचा है माँ के बिना न सृष्टि हो सकती है और न वंश वृद्धि हो सकती है, और न लालन पालन, न शिक्षा का प्रभाव पड़ सकती है (इस प्रकार मानव के लिए सभ्यता की शुरूआत माँ ही से मानना पड़ेगा। कहावत है “ऐंगा दो अदिङग गुसियो कोवा दो नमचारा चि कुन्टु ज्यों संस्कृत में जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी; इसलिए मागे का अस्तित्व रखने एवं मान मर्यादा (रज) ही पर विशेष ध्यान देना ही है। पर्व कहने से खान पान अथवा उत्साह मानना होता है। मालूम होगा कि केवल मनोरंजन ही नहीं बल्कि भूतकाल में हो गये रचनात्मक कार्य को आदर्श देना तथा उसका प्रतिक्षण वर्त्तमान और भविष्य के लिए अस्तित्व की रक्षा करना है। मागे पर्व आदि के अनुसार सृष्टि से चला आता है। यह पर्व आदि माता के अध्यात्मिक संस्करण के आधार पर किया जाता है। आदि माता न जन्में, न किसी की पुत्री थी ? आदि मानव (दुप्पुब होड़) लुकु से जात हुआ था। इसलिए उसे लुकुकुड़ी के नाम से विख्यात हुआ।
सृष्टि दवानल में खाक हो गया। वारड़दाड़े (भव शक्ति) की इच्छा से प्रलय में जलमग्न हो गया। अन्धकार ही अन्धकार छा गया। किन्तु भवशक्ति ने पहले ही वियन बीज जमा कर चुका था। उसने आठ भक्तों को चुन लिया।
“हो सोका” पहला भक्त था उसकी सहायतार्थ सप्त ऋषियों रूई, सुमी, मुंगडु, बुध, गुरा, शुक्र और शनि को एक केले के नाव (डोंगा) में रखा था तथा पानी मे घुम रहा था। भवशक्ति को पुनः सृष्टि की इच्छा हुई। गढ़वानल ने रूई को हरण किया, सूर्य उत्पति हुआ और यह समय उसी कार्य के ब्योरा रूईहर दिन पड़ा। सुमिहरणा हुई चाँद उत्पति हुई। सुमिहर दिन रखा गया। मुगडु हरण हुआ मंगल तारा (अडों अपिल) का उदय हुआ। बुधु हरण हुआ जुम्बली इपिल बुध ग्रह उदय हुआ बुधहर ठहराया गया गुरा हरण हुआ वृहस्पति (और इपिल) उगा। शुक्र हरण हुआ जिलू को इपिल शुक्रहर शनिहरण हुआ शनिहर दिन रखा गया, नगेएरा बन गई जो जलदेवी बनी।
ऋषियों के तपो बल पर पानी में केंचुआ (लेनड्ड) का उत्पति दिया। फिर केकड़ा (कटकोम) उत्पन्न हुआ, केंचुआ ने मिट्टी दिया उसी मिट्टी का केंकड़ा डीला (बुनुम) बनाया, दिमाग पैदा हुआ। जो अपना बालम को पर्वत का रूप दिया। दिमाग के हरलू से छतू उपजा और वही छतू साढ़ कर शिरू (कुश घास) में परिवर्तन हो गया।
भवशक्ति की इच्छा से “हो सोका” नुड टेब (बूँद) में प्रविष्ट हो गया। और कालक्रम से एक लड़का का उदय हुआ यह कार्य लुकु बुरू (लुकु पर्वत) पर हुआ इसलिए उस लड़का का नाम लुकु कोड़ा पड़ा, जो नगे ऐरा की निगरानी में था और “गोवाँ बोङगा” भी सहायता स्वरूप लड़का का पालन पोषण किया।
आदि माता
सृष्टि वृद्धि के लिए भव शक्ति चार भागों में बाँटा गया देशाउली, पौंउई, गोवाँ बोडा और जैरा तीन नर तथा ग एक भाग नारी का रचनात्मक कार्य हुआ। वही चिंगड़ी मछली से आदि माता जात हो गई। इसका नाम लुकू कुड़ी रखा गया एक श्लोक प्रसिद्ध है-
बुःउ बुनुम दुमं माटी शिरजन सरी शिरूँ तठी लूकू लेंगा उकु जेङगा लोहड् सरूब चुड़ देंगा जु जु तंञसेतोम मेरे।
बुरू यां शुकन यात्रा- समय बदलते गया दोनो कुँवार अवस्था में आ पहुँचा, अब क्या था ! भवशक्ति की ईच्छा हुई और दोनो निकटवर्ती किए गये। एका-एक एपेन्डोम रूतु से सुरीली आवाज निकाला। दोनो ने संगीत में भाग लिए, फिर क्या था दोनो एक दूसरे की आवाज पर आकर्षित हुए। अन्त में गूँगू झांड़ी के समीप पहुँचे आँखे टकराई दिलं धड़का और हाथों में हाथ मिल गये। इधर दैनिक ज्ञान ने भाई बहन का रस्म दिया। उसी दिन से दोनों एक जगह रहने लगें और उन्हें पोतोर पिन्दा पत्ते का पहनना मालूम हो गया। इसी मिलन को संस्कृतिक स्वरूप षुकन कहते हैं। षुकुन महीना पूर्णिमा को दम्पति में मिलनें का भवशक्ति ने आज्ञा दी। सांस्कृतिक श्लोक भी नीचे है
1 षुकन बुरू राई बुरू चिकान रिया पसा जा बले बरेञ। मराअः रिया पसा जा डुला मिसिञ
2 षुकन बुरू नेलं केन
मरसाउली चिना केन
नुकरी जा बले बरेञ
बलेः मिसिञ दो
इस से पता चलता है कि षुकन का अर्थ आवश्यक स्यंवर है दोनो मे जवानी आ पहुँची, भवशक्ति की इच्छा हुआ कि अब भाई-बहन के रस्म को दम्पति में परिवर्तन करना होगा।
इधर सप्त ऋषियाँ भी बन चुके थे। इसलिए अब सृष्टि पूजनी होना था। यह मागे पर्व का ही एक आरम्भिक कार्य है। इसे षुकन यात्रा या बुरू मागे भी कहते है। हातु मागे या सेता मागे- किन्तु जब तक सृष्टि अथवा रचनात्मक कार्य नहीं होता है तो उन दोनो को कौन बतावें और उन दोनो में भी यह नया आवधि था। भवशक्ति ने सोचा अब कार्य कलाप शुरू किया जाय।
नया चाँद प्रतिपदा का दिन था; भवशक्ति “ओरल के रूप में आधा पक्षी आधा पशु बन कर आया और बोली मनुष्य की बन कर और कहने लगे “सरदी यना बेन होन किं मेन्दो तिसिञ ते गेल माहै ते मागे षुमोआ।” जिसका एक गीत मशहूर है
चेताने ते जुगी होन लतारे तेजुगी होन कोय कोयते जुगीभ सेटेरे लेना 2 कोड.
नैर्गेञ मेनाई रेचा जुगी कोय दो नेमामा (कोड.)
नपुञ मेनाई रेचा जुगी दुब में मेताम (कोड.)
संगीत से सम्बोधित किया गया। जो भी हुआ अब मागे पर्व (त्योहार) का उदय इस प्रकार चर्चित है
1 “अनादेर” नवाँ दिन (चाँद) इपिसिंह भवशक्ति शशक के रूप में आया उसने उन दोनो को ढाढ़स दिया। साथ ही रानु औषधि का आविष्कार बताये; फिर उस औषधि से बनाना और हन्डिया पीने की आज्ञा दिया । अर्थात् प्राश्चित किया सूर्योदय होते ही रजस्वला आरम्भ हो गया जो प्रतिपदा से आठ दिन तक ।
2. दसवाँ चाँद (अंगरा) को “गौमहरा” परिस्थिति से अपरिचित होने के कारण दोनो में अकाबकी आ गई। भवशक्ति से आज्ञा पाकर एक भीषण साँड़ के रूप में सूर्य आ चमका। उसने उन दोनो को और अपने को चलाने वाले इश्वरी दूत बताया। साथ ही अग्नि का अविष्कार सिखायां ।
3. गयाखाँ चाँद (बोयटा) ” ओतेइलि प्रलय जोर पकड़ा दोनों विहाल हो उठे। भवशक्ति के आज्ञा अनुसार एक बड़ा मेंढक के रूप में चाँद पहुँचा उस ने पानी धारण सिखा दिया और चन्डूः ओमोल का गुण बताया जो जल देवी ही आई थी।
4. बारवाँ चाँद : हेःए सकम” (बासी) अंडो इपिल लुड.गम तंसर कीट के रूप में आया और सूत निकाला; जुम्वली इपिल आया बिन्दीराम (मकड़ी) रूप में कपड़ा विनना सिखाया दोनो पेयाय ओर महली का उपक्रम परिचय दिया। दनसरी और आअः बोड.ग के रूप में आकर सिखाया।
5.तेरवां चाँद (तासी) लोयो या गुरी:– गुरा शुक्र और शनि आ पहुँचे; गुतुरूड् चेपोरोड़ और सुमदणाचु के रूप में गाजा वाजा के साथ नाचने लगे। यह देखकर दोनो घबड़ा उठे। भवशक्ति शेर बहान से गोवाँवोङ्ग नाम में दोनों को आशीष देने पहुँचे। थुहम मुटु के अग्नि में धुणा रामतिया मानीजं तिलमित्र (राल, सुरगुंजा तिल, सरसो) लेकर जलाया और दोनो को आशीर्वाद देते हुए पाणी ग्रहण करा कर वड् (प्रतिष्ठा व शपथ ग्रहण कराया।
6. चतुर्दषी “अंआई” मरंग मागे पोरोब :- देशाउली के रूप में लाल घोड़े पर सवार हो कर आ बिराजे दोनो पवित्रता के साथ इली रासी, बिली परूवा चढ़ाए और चावल कां आंटा लाड् एवं लमः (गूँगफल बीज) धुणा रामतिया, तिलमिञ, मनीजं गिरू पर्परा तथा रम्वा (उरीद) चढ़ाया। फिर शाम को इलि पीने को कहा।
7. पूर्णिमा वासी पर्व “यात्रा पूजा” पौंउई आ चमका पूजा पाठ अराधना किया; जो भवशक्ति का तीसरा भाग बँषु विञ आ बिराजे और दर्शन किया। पश्चात दोनो पी कर मस्त हुए गंगा यमुना के संगम पर पहुँच गये।
8.केचाः कृष्णा पक्ष प्रतिपदा :- ” हरमागिया” – दोनो अपने कार्य पर शर्मा गये दोनो की देखा देखी होना भी भारी हो गया। बगिया आया चावल और उरद के बुँजड़ी मिला दिया। इस तरह आदि संस्कृति का एक महत्वपूर्ण त्योहार है, जिसमें सृष्टि संबंधी विषयों का प्रशिक्षण दिया जाता है। अर्थात यही कारण है कि इस पर्व में स्त्री पुरुष बुढ़ा-बुढ़ी, जवान जवानी ऊँच नीचं का भेदभाव परित्याग कर खुशियाली मनाते है और कार्यक्रम में टोंका एवं फेरी चिरिया भी स्वतंत्र रूप में लाया जाता है। नर नारी के शरीर अंगो का चर्चा करते है; जिसका अगुवा बुजुर्ग वर्ग ही करते है।
षुकन यात्रा या बुरू मागे
यह दो किस्म से मनाया जाता है। एक तो जंगली जानवरों से बचाव के लिए एरा या दियुरी लोग पूजा करते हैं; अर्थात बताया जाता है कि खड़-घास जट्टाधारी (सयु सगाः जनरे) होने से जीव जन्तुओं का भय रहता है। मतलब बाघ भालु एवं हाथी वगैरह घरैलू पशु मनुष्य के खेतों को बर्बाद किया करते है। इसी लिए शांति कायम रखने हेतु बागिया बुरू पौंई की पूजा की जाती है। बगैर पूजा के गांव में दियुरी खड़ घास काटा नहीं किया जा सकता और जंगल झाड़ी जाटी की भी कटाई का परहेज है या खतरा है। जब तक खलिट्टान पूजा (कोलोम बोंगा) सब गांव वालों का नहीं होता तब तक तो मना ही है अन्यथा बिगड़ खड़े होगें। सभी पशुएँ दुसरा भवशक्ति के आज्ञानुसार सृष्टि से लुकु-लक्मी दोनो दम्पति का षुकन हुआ था। उसी यादगार में हरेक साल षुकन पूर्णिमा को युवक-युवतियों को षुकन कराया जाता है। यह कार्य “एटेःतुर्तुड. अक्हाड़ा” में इकट्ठा होकर गरीब-अमीरों का सस्ता सुविधा कम खर्च पर शादी ब्याह का सम्पन्न, र्निविरोध निर्दोष माता-पिता, भाई बहन खुशीयाली से सभी सज्जनों के समक्ष किया जा सकता है। किसी किस्म का शगुन या अपशगुन की मान्यतः नहीं है। फिर भी सुख शांति से जिन्दगी का जीवन यापन दोनो दम्पति कर सकते है। शत प्रतिशत सत्य है। समझदार लोग तो दिलचस्पी लेते ही हैं और मन पसन्द चयनित कर शादी-ब्याह कराते हैं।
स्रोत – कोल हो संस्कृति दर्पण