Bagun Palton Kaun Hai
छोटानागपुर के कोल्हान क्षेत्र में अवस्थित सेरेंगसिया घाटी अपने आप में कई यादें समेटे हुए है और लड़ाका ‘हो’ लोगों के बहादुरी की गवाही भी देता है। हिन्दुस्तान के इतिहास में ही नहीं सेरेंगसिया घाटी का वर्णन अंग्रेजों के डायरी के पन्नों में भी अंकित है। गजेटियर में स्पष्ट अक्षरों में उल्लेखित है। सेरेंगसिया घाटी में जो पश्चिमी सिंहभूम चाईबासा से करीब 15 कि.मी. पर है। कोल्हान के लोगों ने ब्रिटिश सरकार के सैनिकों को गुरिल्ला युद्ध की नीति अपना कर मौत के घाट उतारा था। इस तरह अंग्रेजों के लिए यह घाटी ‘मौत की घाटी’ बन गया था। मौत की यह घाटी गोरे चमड़े वाले ब्रिटिश सैनिकों के खून से रक्त-रंजित हो गया था। लोग कहते हैं कि आज भी कभी-कभी इस घाटी में घोड़ों के टापों की आवाज और मरते हुए लोगों के कराहने की आवाज सुनाई पड़ती है। पहले जब चाईबासा, हाटगामरिया सड़क नहीं था उस समय बांकुड़ा, मिदनापुर (बंगाल) को ओड़िसा से मिलाने वाली सड़क सेरेंगसिया घाटी होते हुए गुजरती थी। सेरेंगसिया घाटी से कुछ दूरी पर एक गाँव है, रेला और उस गाँव के मुण्डा का नाम था सेगा मुण्डा। सेगा मुन्डा पढ़ा लिखा नहीं था, पर उसमें जातीय गौरव और स्वाभिमान की भावना फूट-फूट कर भरी हुई थी। ब्रिटिश राज्य में बहुत सारे मानकी मुण्डा अंग्रेजों के चाटुकार बन गये थे। उनकी सहायता करने के कारण ही अंग्रेजों ने उन्हें बाद में राय बहादुर, राय साहब जैसे शब्दों से अलंकृत कर पुरस्कृत किया था। सेगा मुण्डा के नाम से उस समय अंग्रेजों ने गिरफ्तारी का फरमान जारी किया था। सेगा मुंडा भी जीवट वाला आदमी था। जब तक जिन्दा रहा अंग्रेजों के खून से अपने तीर के नोक को धोया करता था। सेगा मुंडा के मृत्यु के दो माह बाद उसको एक पुत्र हुआ जिसका नाम बागुन रखा गया। बागुन जगन्नाथपुर स्कूल में पढ़ रहा था। देश की आजादी के बाद वह सेना में भर्ती हो गया। बागुन को लोग पलटोन के नाम से जानने लगे। अपने क्षेत्र में वह काफी लोकप्रिय था। उस क्षेत्र के गांवों से और भी लोग सेना में थे। पर बागुन पलटोन का क्रियाकलाप सब से भिन्न था।
गाँव के युवक जब भी छुट्टी में घर जाते नयी साईकिल खरीदते, हाट-बाजार, मेला का चक्कर लगाते, हंडिया-दारू (देशी-विदेशी) में डूब जाते। पीने-पिलाने के चक्कर में अपने परिवार की सुध नहीं रहती और छुट्टी समाप्त होते-होते उनकी ऐसी स्थिति होती कि साइकिल और हाथ की घड़ी तो सस्ते दामों में बेच डालते तथा वापस लौटने के लिए साहूकारों से कर्जा लेना पड़ता था। पर बागुन पलटोन न हड़िया पीता और न ही दारू छूता। वह गाँव के युवकों के लिए आदर्श था। जब भी छुट्टियों में वह गाँव आता, सामाजिक कार्यों में व्यस्त हो जाता। स्कूलों में जा कर अपने गाँव के छात्र-छात्राओं की उपस्थिति की जानकारी लेता। पढ़ने लिखने में तेज बच्चों को आर्थिक सहायता प्रदान करता। गाँव के बुजर्गों के साथ बैठकी का आयोजन कर सामाजिक कुरीतियों की चर्चा कर उन्हें दूर करने की सलाह देता। रेला गाँव को साक्षर बनाने में लोग बागुन पलटोन का ही श्रेय मानते हैं। उसके गाँव में समाज द्वारा निर्धारित तिथियों में ही सभी पर्व त्यौहार मनाये जाते हैं। गाँव के आपसी झगड़े विवादों को कोर्ट कचहरी में ले जाने वालों को गाँव के लोगों के द्वारा सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था। इस तरह बागुन पलटोन ने गाँव को एक दिशा दिखाया। उस गाँव के लोग हड़िया को मात्र पूजन कार्यों में व्यवहृत करते हैं।
बागुन पलटोन के आने पर समूचे गाँव में त्योहार सा वातावरण हो जाता था। आज समूचे गाँव में सन्नाटा था, सभी के चेहरे पर खामोशी और मातम का आलम था। बागुन पलटोन आज चिर निद्रा में था। सुना है सरकार रेला गाँव के इलाके के सभी जमीन को किसी योजना के नाम पर अधिग्रहण करने जा रही थी। पलटोन बागुन ने अपने पुरकाती-पुस्तैनी खूँटकांटी रैयती जमीन को अधिग्रहण से बचाने के लिए गाँव के लोगों को संगठित कर जुलूस के रूप में सेरेंगसिया घाटी होते हुए जिला हेडक्वार्टर की ओर प्रस्थान किया था। पर अचानक गोली चलने की आवाज हुई और प्रदेश का एक अनुशासित सैनिक बागुन पलटोन का लहू-लुहान शव सेरेंगसिया घाटी में लोटने लगा। लगा। देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने में इतिहास के पृष्ठों की संख्या में वृद्धि करने वाले सेरेंगसिया घाटी में आज अपने ही देश के सिपाहियों की गोली से देश के एक अनुशासित जवान का रक्तरंजित शरीर छटपटा रहा था। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी फूट-फूट कर रोने लगे थे पर इस ऐतिहासिक घाटी में सन्नाटा, बिल्कुल मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रेला गाँव में बागुन पलटोन की समाधि बना दिया गया है।
(लेखक-घनश्याम गागराई)