Ho Samaj Bid Diri ka itihaas
आदिवासी समाज का इतिहास केवल लिखित ग्रंथों में नहीं, बल्कि उनके पत्थरों, परंपराओं और सांस्कृतिक चिह्नों में जीवित रहता आया है। ऐसा ही एक अमिट प्रतीक है — ‘बिड दिरि’, जो कोल-हो समाज की सांस्कृतिक पहचान, ऐतिहासिक स्मृति और सामाजिक संरचना का अहम हिस्सा है। ‘बिड दिरि’ शब्द दो भागों से मिलकर बना है — ‘बिड’ जिसका अर्थ है गढ़ना और ‘दिरि’ जिसका अर्थ है पत्थर। इस प्रकार बिड दिरि का शाब्दिक अर्थ है – पत्थरगढ़ी
जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी, तो उसका नाम, वंश, पता और जीवन-योगदान को पत्थर पर अंकित कर ‘बिड दिरि’ के रूप में गाड़ा जाता था। यह स्मृति का प्रतीक बनकर, उस व्यक्ति की पहचान को पीढ़ियों तक जीवित रखता था। यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु ऐसे हालात में हो जाती थी कि उसकी लाश नहीं मिल पाती, तब भी उसकी स्मृति में पत्थर गाड़ा जाता — यह सांस्कृतिक सम्मान और भावनात्मक जुड़ाव का एक सशक्त उदाहरण है। ‘बिड दिरि’ केवल मृत्यु का चिन्ह नहीं होता, यह खुंटकट्टी (वंशानुगत भूमि अधिकार) की परंपरा का भी प्रमाण होता है। इसमें उस व्यक्ति का वंश, किलि , जाति और मूल गांव का उल्लेख होता है, जिससे परिवार और पीढ़ियों की वंशावली सुरक्षित रहती है।
यह पत्थर एक तरह से वंश-वृक्ष का आधार होता है, जिससे समाज में पारंपरिक संबंधों, विवाह प्रतिबंधों और सामाजिक संरचना को समझा और बनाए रखा जाता है। पुराने समय में जब लिखित दस्तावेज या कागज की व्यवस्था नहीं थी, तब गांव की प्रशासनिक जानकारी जैसे: – गांव के नियम-कानून सामाजिक निर्देश धार्मिक या सांस्कृतिक घोषणाएं
इन्हें गांव के चौराहों या सीमाओं पर बिड दिरि के रूप में गाड़ कर लिखा जाता था। यह आज के समय के ‘सार्वजनिक सूचना बोर्ड’ जैसा कार्य करता था। बिड दिरि और ससन दिरि (कब्र पर गाड़ा गया पत्थर) केवल पत्थर नहीं, बल्कि सामूहिक श्रम, आस्था और परंपरा का सजीव उदाहरण हैं।
पत्थरों को लाने का कार्य पुरुष समुदाय द्वारा किया जाता था। इन पत्थरों को दूर-दराज के जंगलों, पहाड़ियों, नदियों से खोज कर लाया जाता था।
इस कार्य में कई बार दिनों, हफ्तों या महीनों तक का समय लग जाता था।
लोग खाने-पीने का सामान, औजार और रस्सियाँ लेकर चलते थे। रास्ते में जंगली जानवर, सर्प, बिच्छू, मौसम की मार जैसे खतरों का सामना करना पड़ता था।
कहीं-कहीं तो लोग रातभर जंगलों में ही रुकते थे, खुले आसमान के नीचे।
आज जब हम गांवों में बड़े-बड़े ससन दिरि या बिड दिरि देखते हैं, तो वो न सिर्फ स्मृति हैं, बल्कि श्रम-संघर्ष और सामूहिक भावना के प्रतीक हैं।
इतिहास जब कागजों में पक्षपात, पूर्वाग्रह, और सत्ता के दबाव में लिखा गया — तब आदिवासी समाज ने बिड दिरि जैसे सांस्कृतिक दस्तावेजों के ज़रिए अपनी सच्ची कथा को सहेज कर रखा। जहाँ लिखित इतिहास संदिग्ध हो, वहाँ संस्कृति शाश्वत गवाह बनती है।”
बिड दिरि में खुदी हुई बातें हमारे पूर्वजों के कथन, संघर्ष, संवेदनाएँ और गौरवगाथाएँ हैं — जो आज भी गांव की मिट्टी में गूंजती हैं।
आज भी कई गांवों में यह परंपरा जीवित है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इस विरासत को संरक्षित करने के लिए प्रयासरत हैं:
गांव की सीमाओं पर सूचना पत्थर गाड़े जाते हैं।
उसमें गांव का नाम, गोत्र, सामाजिक नियम खुदवाया जाता है।
कहीं-कहीं सुंदर नक्काशी और कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ इन्हें सजाया भी जाता है।
लेकिन कई स्थानों पर यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। इसलिए यह जरूरी है कि:
लोग अपने गांवों में बिड दिरि की पहचान करें।
तस्वीरें, विवरण, स्थान और स्वरूप का दस्तावेजीकरण करें। स्कूलों, पंचायतों और सांस्कृतिक आयोजनों में इसकी जानकारी दी जाए।
यदि आपके गांव या आसपास कोई अनोखा बिड दिरि हो — जिसकी आकृति (shape), बनावट या खुदाई अलग हो — तो उसकी तस्वीरें और जानकारी संकलित करें।
> यह न केवल इतिहास का संरक्षण होगा,
बल्कि हमारी आदिवासी अस्मिता, स्मृति और स्वाभिमान का पुनर्जागरण भी होगा।
‘बिड दिरि’ केवल एक पत्थर नहीं है।
यह एक कथा है — जो बोली नहीं जाती, बल्कि गढ़ी जाती है।
यह कोल-हो समाज की आत्मा, इतिहास, भाषा, और संस्कृति का शिलालेख है।
हमारा दायित्व है कि इस विरासत को:
समझें,
संजोएं,
और अगली पीढ़ी तक पहुँचाएं।
> “जब शब्द मिट जाते हैं, तब पत्थर बोलते हैं।
और जब इतिहास चुप हो जाता है, तब संस्कृति बोलती है – बिड दिरि के रूप में।”