Lako Bodra ne khoj nikali aadivasiyo ki khoi sanskriti
Lako Bodra ne khoj nikali aadivasiyo ki khoi sanskriti:-भारत में हर पीढ़ी में ऐसा महापुरुष जन्म लेता है जिनके कर्म से हमे महान कार्य करने की प्रेरणा मिलती है ऐसे महापुरुषों में कुछ विशव स्तर पर प्रख्यात हुए इनमे से किसी ने देश की समस्त जति की सेवा की, तो कु छ अपनी जाति और समाज तक ही सीमित रहें ऐसे ही महापुरुषों में एक थे।
गुरु कोल लको बोदरा गुरु बोदरा व्हारङ क्षिति (हो लिपि) के खोजकर्ता के साथ एक जनजातीय कवि लेखक और आध्यात्मिक गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति थे।
उनका जन्म 19 सितंबर 1919 को पश्चिम सिंहभूम ज़िलों के खूंटपानी प्रखंड अंतर्गत पासेया ग्राम में हुआ था जन्म के समय गुरु बोदरा के पिताजी किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त थे और जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे थे कहा जाता है कि जन्म से पूर्व उनकी माता के गर्भावस्था के दौरान ही एक साधु ने भाविष्यवाणी की उनके गर्भ से एक ऐसे शिशु का जन्म होगा जो आगे चलकर पूरे आदिवासी समुदाय का मार्गदर्शक बनेगा कृषक परिवार में होने के बावजूद पिता लेबेया बोदरा और माता जानो कुई ने उन्हें किसी प्रकार की कमी नहीं होने दी उनके दादा जी कोल डुड्डा लाको बोदरा था इसलिए आदिवासी संस्कृति के अनुसार, दादा के नाम पर ही उनका नामकरण लको बोदरा हुआ उनकेे दादा जी भी ख्यातिप्राप्त पुरुष हुआ करते थे, जिसने बिरसा मुंडा रितुई गोंडाई, चुंगु सांडी, मांडो सरदार आदि वीरों के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा लिया था
होनहावीरखान के होते चिकने पतवान कहावत
कोवरितार्थ करने वालें गुरु कोल लको बोदरा शुरू से ही दृढ़ निश्चय एवं मृदु भाषी थे उनकेे शैक्षिक जीवन की शुरुआत पुरुनिया मध्य विधालय हुआ , जबकि उच्च विद्यालय स्तर की शिक्षा बडचोम हातु प्रथा मिक विधालय 1-3 वर्ग तक मध्य विधालय से और उच्च विद्यालय चक्रधर पुर रेलवे उच्च विद्यालय और ज़िला स्कूल चाईबासा से जयपाल सिंह मुंडा व्दारा पंजाब ले जाया गया वहां से उच्च शिक्षा प्राप्त की होश संभाली ही गुरु कोल लको बोदरा को अपने भाषा के लिए स्वतंत्र लिपि के होने का भी उन्हें चिंता होने लगीं ।
उनके विधालय में एक दिन हिंदी की कक्षा व्दारा रही स्पष्ट था
मातृभाषा का महत्व हिंदी के शिक्षक उनसे इस पाठ को पढ़कर सुनाने को कहा उन्हें पढ़ना शुरु किया पाठ के अंश पढ़ने के बाद वहां पर रुक गये शिक्षक ने उनसे आगे पढ़ने को कहा पर उन्होंने पढ़ने से इन्कार कर दिया उनका इस हरकत से शिक्षक गुस्से से लाल पीलो गया जिन पंक्तियों की उनसे पढ़ने को कहा गया था उसमे
लिखा था जिस समाज जाति की अपनी भाषा लिपि और संस्कृति नही है उस समाज व जाति के लोग बिना सींग बिना पूंछ के जनवर के समान होते हैं और उसी समय कक्षा के शिक्षक के समक्ष प्रतिज्ञा कर ली असभ्य व मूर्ख शब्द को अपनी जाति से हटाने के लिए वह अपना सारा जीवन आदिवासी समाज के लिए अर्पित कर देंगे ।
शिक्षक उनकी बातों को सुनकर थोड़ी देर बाद शिक्षक ने उनसे कहा ठीक है अपने समाज की उन्नति के लिए तुम्हें पढ़ना लिखना होगा ताभी तुम अपने समाज के अच्छे मार्गदर्शक बन सकोगे ।
इस घटना के बाद गुरु कोल लको बोदरा कक्षा में अकेले और लड़कों से हटकर बैठने लगे भोजनकाल में उन्होंने अपने समाज के बुजुर्गो से मिलना और उनसे विचार विमर्श करना शुरु किया विषय होता था लिपि , साहित्य और संस्कृति वह अक्सर बड़े -बूढों से यही पूछ करते हमारे हो भाषा की कोई लिपि है या नहीं अपनी लिपि है मगर बिखरी हुई अवस्था में तुम चाहो तो इसे खोज सकते हो समय की तेज रफ्तार के साथ उन्होंने अपनी उच्च विद्यालय की शिक्षा पूरी की और अपनी लिपि की खोज में जुट गये लिपि की खोज में उन्हें क
ई दिक्कतों का सामना करना पड़ा इस दौरान वह क ई
वीरान जंगलो पहाड़ों पर गये और उन्होंने पुराने पत्थरो का अध्ययन किया वह देश के क ई संग्रहालयों में भी गये उन संग्रहालयों में उन्होंने पांडुलिपि के संबंध में जानकारी हासिल की इसकेे बाद वह सराईकेला, पोड़ाहाट चक्रधर पुर मयूरभंज , ,ईचा, क्योंझर आदि राजाओं के पुस्तकालयों में गये यहां भी उन्हें लिपि के बारे में क ई महत्त्वपूर्ण जानकारियां मिलि अंततः सन 1939 के अक्टूवर में ही उन्होंने एक लिपि खोज निकाली जिसका नाम व्हराङ क्षिति रखा ।
उसके बाद उन्होंने घूम घूमकर लोगों को उपदेश
दिया उनकी बातों से प्रभावित होकर कई लोगों ने गलत संगत छोड़ दी सन 1953 में उन्होंने झींकपानी के जोड़ा पोखर मे एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा ,आदि संस्कृति एवं विज्ञान शोध संस्थान नामक संस्था का गठन किया।
गुरु कोल लको बोदरा हमसे 29 जून 1986 को सदा के लिए दूर चले गए उनके निधन पर तत्तकालीन
प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी शोक पत्र भेजकर शोक व्यक्त किया था गुरु जी के निधन से हो समाज को भारी क्षति हुई है।
जोआर 🙏