कोल रूल आदि संस्कृति
Kol Rule Adi Sanskriti अनुवादक-श्री लको बोदरा संस्थापक एवं संचालक आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान, पता-पासेया, अयोध्या पीढ़। एटेः तुर्तुङ पिटिका आखड़ा, झींकपानी।
उपक्रमणिका
आज तिथि 8-11-1961 ई. को दुपुब हुदा (आदि समाज ) की जागृति पर छानबीन करते हुए एटेः तुर्तुङ पिटिका आखाड़ा (आदि संस्कृति एवं विज्ञान केन्द्र) की ओर से झींकपानी में षष्ठम वार्षिय समारोह के सुआवसर पर जगह-जगह के प्रतिनिधि भाई वो बहनों से मतैक्य हो कर धर्मिक, समाजिक, संस्कृति एवं आर्थिक समस्याओं के विकास पर विचार विमर्श हुआ और दृढ़तापूर्वक समाज के अंतर्गत बिछे हुए भूत वो वर्तमान की त्रुटियों की रूदीयों का विरोध करते हुए भारत की एकता को सुदृढ़ करने वाले मतों को प्रदान किए तथा ‘कोल रूल’ नामक इस विधान पुस्तिका की रचना कर आदि समाज के संचालन एव जागृति हित कर्मों की पुर्ति का आधिकार सुपुर्द किए। इस सभा में नर 1128 और 320 नारी, प्रतिनिधियों की रूपरेखा 1468 की संख्या में भारत के कई फौजी छावनियों एवं विहार, बंगाल और उड़िसा के कितने ही स्थानों से उपस्थित हुए थे और कोल रूल में निर्धारित नियमों का पालन हेतु शपथ के साथ सर्व सम्मति से यह विधान सन् 1961-62 के कार्यसंचालन एवं विकास हित कार्य में पारित किया गया। फलस्वरूप तिथि 1/11/1961 ई. को एटेः तुर्तुङ पिटिका आखाड़ा (आदि संस्कृति एवं विज्ञान केन्द्र) की ख्याति तथा सफलता के लिए राजस्व मंत्री मननीय श्री रमण मिश्र और जंगल एवं कल्याण विभाग के उपमंत्री माननीय श्री श्याम चरण तुबिड् के शुभचिंतक, पदार्पण का सुयोग भया। अतः इस अवसर पर एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा की ओर से बीते पांच वर्षों से समावेश समाजिक कल्याण योजना की कताई, बुनाई, फुलवाई, सिलाई, बढ़ाई तथा मिट्ठी ओर बांस के कस्तकारी इत्याादि की प्रदर्शनी का आयोन भी हुआ।
दुपुब हुदा (आदि समाज)
आदि संस्कृति स्वरूप आदि धर्म’ दुपुब दिशुम मारङ बोंगा’ का मूल संस्कृति भाष्य में उच्चारित सभी श्रेणी ही दुपुब हुदा के श्रेणी माने जायेंगे।
1. ‘व्हार होरा’ पुस्तक में संकेतिक नियमों के अनुयायी ।
2. ‘बोंड्ङ्गा होरा’ पुस्तक में आधारित संस्कृति के अनुयायी ।
3. एटेः तुर्तुङ से संबंधित धर्म के सहयोगी ।
4. प्रकृतिक के उपासक।
5. जन्म संस्करण में सर (तीर) का कार्यरोपण एवं आखिरी संस्करण में रोवा केया (आत्मा पुकार) से युक्त।
6. सोमरस (इली) की संस्कृतिक रूप दाणे (भगवद्) अवलम्बी ।
7. चरवाह (पशुपालक)।
8. तेल के व्यवसायी।
9. कताई-बुनाई वाले।
10. बांस-बेंत के कश्तकारी।
11. लोहा के करोबारी।
12. तांबा-पीतल के उत्पादक।
13. सोना-चांदी के अनुसन्धानक।
14. मुर्दा-गलीज के संस्कारक।
15. दश्तकारी करने वाले।
16. बर्तन आदि के प्रवर्तक।
17. कैंची-अस्तुरापर निभर करने वाले।
18. वस्त्र साफ करने वाले।
19 अध्यत्मिक अभिलाषी।
20. गुंगुडोरी जनेऊ के उपभक्तों।
21. उपहारा-व्रतधारी वनवासी।
22. सत्य ईमान के योगी।
23. पंचज्ञः (स्मारक पत्थर) के चलन वाले।
24. शिवाभूषण युक्त जंगली अधिपति।
25. जंगल कंद, मूल, फल एवं शिकार भक्षी।
26. जल पर जीविका (निर्वाह) करने वाले।
27. संगीत-नाट्य प्रिय।
28. चर्म व्यवसायी।
29. हाथी-घोड़े पालक।
30. व्याघ्र, भालु सर्प से संबंधित जीविका वाले।
31. लकड़ हारा वो बढ़ई के व्यवसायी।
32. वैदिक स्वावलम्बन, मंत्र, यंत्र, तंत्र, योग उपासक अथवा कृषि के बीर तपस्वी ।
इत्यादि, भारतवर्ष के वैदिक सन्तति सभी भारतवासी दुपुब हुदा के अंतर्गत माने जायेंगे।
एटेः तुर्तुङ् ( आदि सांस्कृतिक ) वंशज
कोल रूल को अपनाते हुए, एटेः तुर्तुङ की आज्ञाओं को पालन करने में जो, आदि समाज के अंतर्गत अपनी अपनी जिंदगी अंजाम चलाने में, जो आदि समाज के अंतर्गत अपनी जिंदगी आजन्म चलाने में शपथ खा चुका, खाता है अथवा शपथ का भागी बनेगा वे सभी एटेः तुर्तुङ के वंशज माने जाएंगे, ज्यों-
1. ध्यान, ज्ञान, व्यान सत्य, सात्विक, सत्यनिष्ठा ।
2. अहिंसा परमोधर्मः प्रवर्तक ।
3. मद्यपान निषेधी ।
4. धुम्रपान निषेध ।
5. माया विहीना योगी।
6. पितारूण द्रव्य का संस्कारिक सदुपयोगी।
7. अध्यात्म परिचयक परिवार ही।
कोल रूल
इस वैज्ञानिक युग में प्रत्येक प्राणी मात्र को समाज की जाति आवश्यकता होता है। क्योंकि, सबों को षट्कर्मों से संबंध रखना पड़ता है। फलस्वरूप मानव समाज को तो अपने कर्मों की प्रत्येक अवस्था में नाम तथा दाम, दौअर्थिक जानकारी परमअवश्यक होती है।
उक्त वाणी युक्त एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा ने भी समाजिक संगठन एवं गुरुत्व हित, प्रत्येक कार्य की पुर्ति में जिन नियमों को सुसज्जित कर इस पुस्तक का निर्माण किया और अपनी ढंग से आदि संस्कृतिक संस्कृत भाषा के शब्दों पर अनुसंधान कर अर्थ ‘कोल रूल’ रखा। कहावत है ‘जैसा देश वैसा भेष’ से सलंग्र, चाहे ऐतिहासिक संघर्ष अथवा जयचन्द बुद्विहीन संसर्ग से उत्पन्न कैसा भी उद्देश्य से आदि समाज के संयोजक में शुद्धाशुद्ध वातावरण युक्त नामावली रखा गया था। आज सप्रमाण उदाहरण सहित सर्वसाधारण के सामने प्रकाश किया जाता है और आशा पल्लवित है कि मानव इसे अपने ज्ञान चक्षुओं पर असन देंगे।
तथा इसे आदर का नमुना प्राप्त होगा। कोल (सं.पु.) शुकर, सुअर, बेड़ा, क्रोड़, गोद, शनिग्रह, अलिंगन, बेर का फल, दो टंक (एक तोला) का वजन, काली मिर्च, कुलथी, पुरु वंशीय एक राजा, कोल राज्य। (हि.पु.) चबेना, बहुरी, भारत के एक अशिष्ट जंगली जाति।
(अंग्रजी.) कोयला, बुलाना-या पुकारना आदि। (आदि संस्कृति संस्कृत भाषा ) सृष्टि के मुल, सृष्टि के शुद्ध रूप, देवताओं का देव, प्रजापति ऋषियों का अध्यात्म श्वांस, सत्य ईमान की विशाल रूप रेखा, शक्ति, पवित्रात्मा बगैरह। उसी तरह रूल का अर्थ भी रूल (अंग्रेजी) शासन।
(आदि भाषा में) पाप, कुकर्म या दुःख से रक्षा करने वाला, आग से निकालने अथवा बचाने वाली चीज या हथियार, रक्षक, शिक्षक इत्यादि। अब, इसी तरह अनुमान कर सकते है कि एक ही शब्द भिन्न-भिन्न संस्कृति एवं भाषा में भिन्नार्थ बताता है। और कई एक शब्द भिन्न-भिन्न संस्कृति एवं भाषा में भी एक ही अर्थ बतातें है।
आदि भाषा
संस्कृत भाषा
दातारम्
दातारम्
दारू
दारू
पणस्
पणस्
मोने (उदद्देष्य)
बिखरे हुए आदि संस्कृति के टुकड़ों का अनुसंधान कर गुप्त, लुप्त तथा दलित रहस्य की परख एवं पुनर्गठन से सभ्यसमाज की समानता पर लाना और अपने ढंग से उठाकर भारतीय नागरिकता के आदर्श पाने में सहयोग होना ही एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा का मूल उद्देश्य है।
सिदं (विधेय)
प्रगतिशील परिवर्तित काल की अवहेलना पर आदि समाज अपने ढंग से धर्मिक, संस्कृतिक एवं अर्थिक समस्या को हल कर समाज के अंदर की कंगाली, अस्पृश्यता, बीकह अथवा भड़काव से उत्पन्न 36 की भावना पर 63 की भावना पैदा कर भारत की गरिमा के हेतु योजनाओं का परिपक्व ही एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा की विधेय विशेषता है जो सर्व
साधारण अथवा सामुदायिक विकास द्वौ मार्गों का अनुसरण करता है।
वड् (शपथ)
आदि समाज को ययाशिघ्र जागृत कर भारतीय राष्ट्र ख्याति के कारोबार मे सहमत करने के लिए एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा के प्रत्येक वंशावली का शिवासन बाघम्बर पर शपथ लेना जीवात्मा की शुद्धता का परिचय पाना परमावश्यक है। इसलिए. मै. .अमुक.. .. दैहिक, दैविक, सौगन्ध युक्त ईश्वर से शपथ लेता हूँ ध्यान, व्यान, ज्ञान से सत्य, सत्विक, सत्यनिष्ठा का ही काम करूँगा कोल रूल से संबंधित आदि समाज के नियमों का पालन करूँगा।….. के रूप में कर्तव्य का पालन और सत्यनिष्ठा से उसे संचालन करूँगा, स्वार्थ सिद्धि के हेतु लोभ या कपट अथवा ईष्या बिना ही सर्व प्रकार से सामुदायिक विकास एवं जागृति हित एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा के उद्देश्यों तथा नियमों से युक्त आदि धर्म, समाज, संस्कृति तया आर्थिक व्यवस्था की वृद्धि कायम रखूँगा।
गोवारि (प्रर्थना)
प्रत्येक मनुष्य की जीवात्मा को विद्या-बुद्धि से सम्पन्न करने के हित, शुद्धि एवं आशिर्वाद युक्त बनाने तथा सहकारिता क्षेत्र में परोपकारिता प्रप्ति के लिए सर्व शक्तिमान (भगवान) एवं दैनिक शक्ति के धारणा को आजन्म दृढ़ता का पाठ रखने के वास्ते स्थान-स्थान अथवा प्रत्येक अखाड़ा में सिरूङ-चिरू (कुश-लव) रोप कर और धर्म तथा संस्कृति को कायम रखने के लिए प्हकिलः (गाँठ वाली लकड़ी) एवं सर (तीर) गाड़ कर धुनी देना अथवा प्रर्थना करना अनवार्य है।
मनातिङ् धर्म-कर्म
सभ्य मानव की आदर्शता कायम रखते हुए संस्कृति से संबंधित “लिदा गोर्गोणिड्” (पञ्चांग) काल क्रम से पर्व-पूजा एक ही साथ होना अनिवार्य है।
1. सिर्फ “व्हर होरा” (पुस्तक में उल्लेख) त्योहर ही का सर्व मान्य, अधिकार हो।
2. “बोंगा होरा” पुस्तक के संकेतों के मोताबिक ही धर्म-कर्म संपन्न होना जरूरी है।
3. पौफुटी भोर में ही एण (पुजारी) को पवित्रात्मा युक्त कार्य लीन होना अनिवार्य है।
जरूरत से आधारित तथा पर्व त्याहरों में सीमित पर ही डियङ की उपयोगिता रखी जावे।
5. त्योहरों में संस्कृतिक अवयव का कार्यक्रम सभ्यता से लेखा-जोखा पर होना चहिए।
6. निम्नांकित नियमों का पालन खूबी के साथ होना अनिवार्य है।
(क) माया विहीना।
(ख) सदा सत्यम् ब्रुहीता।
(ग) अहिंसा परमोधर्मः।
(घ) मद्यपान निषेध।
(ङ) धुम्रपान निषेध ।
(च) पितारूण दुरूपयोग वर्जयेत।
7. धर्म-कर्म पुष्टि पर शर्म (लाज) अथवा भय रखना धर्म विरूद्ध है।
8. काल और परिस्थिति के अनुसार जिसे जहाँ भवै, पर्व मान सकता है।
9. रक्तपूजा मानव धर्म का कलंक है।
10. अठवारि (सप्ताहिक दिन) शनिवार मूल मान कर उपवास रखना उचित है और गुरूवार को लुकुमी को सम्मान करना है।
11. वार्षिक मूल उपवास सच्चरित्रता से होना अनिवार्य है।
12. यज्ञ और भजन अवश्यकता से ही नियमावली पर किया जाना उचित है।
13. नियमों के पालक ही को समाज में विश्ववास वो गौरब का रूप दिया है।
14. नियमों के शिरोधर्य कर काम करने वाले कार्य सिद्धि ही पुजारी के भागी समझे जावें 15.बिना प्रशिक्षण पाये हुए व्यक्ति को किसी किस्म के धार्मिक कार्य का भार अथवा पुजारी की उपाधि नही देनी चहिए। 16. धार्मिक कार्य योग वस्तुओं का निर्माण व तैयारी पवित्रता से अथवा यथासम्भव पुजारी ही से होना अत्युक्त है। 17. समाज की सिद्धि को अपनी समृद्धि समझ कर प्रत्येक उपासक अथवा अनुयायी को ऊंच-नीच अथवा स्पृश्य-अस्पृश्य व परस्परिक मतभेद् से दूर रहना सभ्यता का लक्षण है 18. नियमों का अलिंगन, दुःख-सुख में आपसी सहानुभूति प्रकट करना धर्मालम्बी का लक्षण है। 19. समाजिक आफतों, धोखा का निपटारा अथवा रक्षक बनना ही प्रत्येक अनुयायी का मूल मंत्र है। 20. हल्दी सिर्फ शव (मृर्दा) पर ही और सिंदुर सिर्फ विवाहिता स्त्री ही शोभा पा सकती है।21. दुल्हा-दुल्हिन में तसर वस्त्र, गुंगुडोरी जनेउ, कड़ चूड़ी, सिन्दुर दान एवं चुटि रोतोड् (ऋषियों सा केश संवारना) को इज्जत प्रथमता व श्रेष्ठता दिया जाना धर्मद्युति है। 22. धर्म, संस्कृति एवं ममाज के मध्यस्थ निवाने वाली हालत में भय अथवा शर्माना इन्सानियत वो सभ्यता के विपरीत है। 23. धर्म कीर्ति के हित कार्योपयोग नर-नारी के सच्चरित्र और सभ्य मिमांसा पर निर्भर है।
होरा वारा (नाता गोता)
सृष्टि के गति – प्रगति के उपलक्ष्य प्रत्येक प्राणी को विहन विस्तार की आवश्यकता तथा प्राकृतिक आज्ञाओं का पालन अनिवार्य है। मानव समाज को इन कार्यो सिद्धि और गौरब निम्नांकित नीति को अपनाना पड़ा है
1. नारी जाति की मान हानी के ख्यालात ही श्रेष्ट मानवता का लक्षण है।
2. नर-नारी की शादी-व्याह प्रथा धर्म समाज के कलंक मिठाने की सभ्यता का अर्जा है।
3. अविवाह प्रकृति नियम के विरूद्ध है।
4. बलात्कार अथवा प्रथा कलुषित व्यवहार सभ्यता के विरूद्ध है।
5. पन अथवा दाम की प्रथा वैदिक धर्म की दुश्मनी है।
6. वर-कन्या की योग्यता पर पारस्परिक सहानुभूति चुनाव उचित और श्रेययुक्त है।
7. शादी-व्याह अथवा बन्धुवस्ती से किया हुआ दम्पति जीवन सर्वश्रेष्ट होता है।
8. कार्यक्रम लिखित सिद्धांतो के साथ पंच परित्राण पर किया जाना सभ्यता का आदर्श है।
9. बन्धुवस्ती से ही कार्य का सम्पन्न उचित समाजिक नियमों से परिपक्व रहना अनिवार्य है।
10. बन्धुवस्ती से ही कार्य लियु (दुत) अथवा अकाड़ा-अखाड़ा कमिटि के संदेश युक्त पुर्ति होना मानवता का लक्षण है।
11. वर-कन्या की सहानुभूति चुनाव और पंच के उचित विचार विमर्श के बाद शादी का सम्पन्न होना शांति का लक्षण है।
12. आरम्भिक काल से ही योग, आचार-व्यवहार, चरित्र की छानबीन हर हालत में सावधानी से करना देवलोक स्थापना सिद्ध है।
13. ममेरा अथवा फुफेरा शादी चल सकता है।
14. कालक्रम किम्बा आवश्यकता पर मौसेरा शादी उचित माना जा सकता है।
15. समय और परिस्थिति अनुसार, विधवा अथावा विधूर पुनविर्वाह के योग्य माने जाएगें।
16. विधवा पुनर्विवाह घर के देवर, अंश-वंश, ग्राम तथा औरों पर क्रमानुसार कार्यन्वित किया जा सकता है। किन्तु, प्रथम पति की सम्पति का अधिकारी समाजिक कमिटि की छानबीन के उपर निर्भर करेगी।
17. विघूर का ऐसा कार्य पहले ससुराल के राय-मशवरा के उपरांत अन्य स्थानों में कार्यन्वित करना सभ्यता का साक्षी है।
18. आवश्यकता और उपार्जन शक्ति से ही आधारित होकरदम्पति के मतैक्य पर सौतेला विवाह चलाना शांति का लक्षण है।
19. कार्य मंगी अथवा अहंकार युक्त व्यवहार नरक का पथ दर्शक है।
-: बपाला (बन्धुवास) :-
1 बन्धुवास का दोनों ही किस्म का कार्य ब्योरा आरम्भ से ही ग्राम अथवा अखाड़ा कमिटि से लेकर समाजिक उच्च कमिटि तक में लिखित रूप में उचित रखना सर्वश्रेष्ट होता है।
2. कार्य के प्रत्येक सिलसिले के जमा-खर्च का लेखा-जोखा सीमित और लिखित रहना उचित है।
3. कार्यपुर्ति का काल, वक्त राशि आयु अथवा नक्षत्र की छानबीन प्रारम्भ से ही शुद्ध और सत्य की रूपरेखा पर आनिवार्य रहे।
4. कार्यारम्भ के पहले ही दोनों कुटुम्बियों में घरेलु वातों की छानबीन सन्देह व शुद्धाशुद्धता का निपटारा समाप्त करना उचित है।
5. काल, खर्च, अथवा लोकमत का कम सहायता होना ही चतूराई का चिन्ह है।
6. कार्य सम्पन्नता का भार नर-नारी मिल कर सिर्फ तेरह ही की संख्या होना उचित है।
7. धर्मद्युति संस्कृतिक चीज ‘इली’ को लेकर आवागमन सभ्यता विवाह मान कर स्थानान्तर सिर्फ चावल अथवा रूपैये पर ही कार्य सिद्ध मुनासिब मालुम पड़ता है।
8. कार्य की रूपरेखा सिर्फ एक ही मन चावल अथवा मुद्रा का उपयोग शुद्धता का चिन्ह है।
9. सिर्फ तीन दिनों के भीतर ही कार्य समाप्त करना दोषरहित माना जाता है।
10. बन्धुबास से पहले ही आरानेल (दामाद की जाँच) कन्या के घर में और किमिन नेल (वधु की जाँच) वर के घर से समाप्त रहना अत्यावश्यक है।
11. सुःख-दुःख अथवा शुभाशुभ एरे (सगुन-अपसगुन) की बात चीत अथवा छानबीन शुद्धता के पश्चात्, शक्ति अनुसार वर-कन्या को तोल सुतम् (उपहार) देना सदाचार युक्त है। जिद्दी अथवा जबरदस्ती का मांगना अथवा दिया जाना सच्चरित्रता के विरूद्ध है।
-: अणादि (विवाह सम्पन्न) :-
1. सृष्टि के अनुकुल यौगिक काल के पहले विवाह होना सभ्यता और प्रकृति के विरूद्ध है।
2. बाल विवाह प्रकृति से दुश्मनाई का लक्षण है।
3. सगुन-अपसगुन को सावधान और शुद्ध के परख के बाद ही शादी का व्योरा होना होशियारी का काम है।
4. शादी का काल, वक्त, तिथि अथवा मुहुर्त ज्ञान वो निर्धारण जानकारी ज्योतिष अथवा ज्योतिषी से संबंधित अनिवार्य है।
5. विवाह सम्पन्न यथासम्भव मोंडो (समाज सदन) बोंगा ऑणादी (दव विवाह) से होना समाज संस्कृति को सुदृद बनाता है।
6. विवाह ज्योतिषी के संकेतिक उचितावस्था ग्राम, अखाड़ा अथवा समाजिक कमिटि के निर्धारित कोई भी स्थान पर कार्यरूपेण किया जा सकता है।
7. एंगा-बागे व अजीहनर लिजः (माँ का विछोह व जेट साली सम्मान) का दुरुपयोग शुद्धता से शादी सम्पन्न के बाद पंच मध्य से लेना-देना सभ्यता का परिपक्व है।
8. जोम मांडी (रिस्तेदारों के घर-घर जाकर वधु का पैसा मांगना) सच्चरित्रता के विरूद्ध तथा सतीत्व और पतिव्रताधर्म का कलंक नमुना है।
9. विवाह सम्पन्न के सातवें दिन पूर्व से दुल्हा-दुल्हिन का बाहर आवगमन संस्कृति के विरूद्ध है। बल्कि, उसी दिन से अपने-अपने घरों में सुनुम ओजोः (तेल मखाई) गौड़िन से ही धर्म-संस्कृति के गौरब की पुष्टि होती है।
10 ओर एरा (वर की ओर से बारात लाने भेजे जाने वाले व्यक्ति) सप्तऋषि-सम्पर्क पर छत्र छाया सा होना शुद्धता है।
11. धार्मिक भजन-गान तथा शांति व सभ्यता के कर्मों के साथ वधु विदाई होना अनिवार्य है।
12. गोःआदेर (बारात के पहलेजाने वाली कन्या की ओर की व्यक्ति) सप्तऋषि सम्पर्क पर ही बारात के जिम्मेवारी समझने की क्षमता रखना उचित है।
13. साखीसुतम (गवाही सुत) का बांधना साधरणताः गाँव के किनारे आम वृक्ष पर ही होना यथासम्भव योग्य माना जावे।
14. राजाबजाणा व रोड़ोसिंगा (सृष्टि को हिदायत देनेवाली वाजा-गाजा) का कार्यान्वित अत्यन्त आवश्यकता मानी जानी चाहिए।
15. ग्राम व वस्ती के छोर या सीमाने से ही नरियल दाल, गाजा-वाजा और कला के साथ दारोम दअः युक्त दुल्हा अथवा दुल्हिन का स्वागत करना कार्य निपुणता का लक्षण है।
16. मनोविनोद अथवा भोज की व्यवस्था पंच को अपनी सभ्यता का सुन्दर रूप माना जाता है।
17. सिद्दि ज्योतिष की ज्योतिषी से संबंध वक्त, काल और मुहुर्त पर पुजारी के आशीष छाया में दुल्हा-दुल्हिन का सिन्दुर दान, कड़, चुड़ी, जनेऊ तथा वर-वधु का पणिग्रहण शुभ और चिरंजिवी, का फल-फूल योग है।
18. बहुरूपीय जोड़ीयों के एक लग्र शादी पर पुजारी के अलावे सभी को उपवास धार्मिक भजन-गान के साथ कार्य का सम्पन्न वैदिक सम्पति व सन्तति वर्धक है।
19. शादी समाप्त होने के उपरांत उपहार का लेन-देन कमिटि के सहयोग पर उचित सभ्यता रूपेण है।
20. नयी वधु के परिचय को सुदृढ़ रखने के वास्ते जोम-इसिन (नयी वधु के हाथ का खाना) विशेष विशिष्टता की प्राप्ति है।
21. वर-वधु के घर में सप्ताह बाद और बाहरी स्थान में तीन दिनों के बाद जम्डारपुड् (व्याह वेदी मंडप) व विसर्जन शुभ फल का प्राप्ति है।
22. इस विसर्जन के पूर्व बांदा पाड़ा (सुहागरात) कार्य धर्म वो संस्कृति नाशक माना गया है।
23. शादी के ग्यारहवें दिन के पश्चात् ही कुलगिया (दम्पति) कौटुम्बिक चहल-पहल की शोभा पाने के समर्थ समझें जाऐंगे।
一: सेल्ल आँणादि (अंतर जातीय विवाह) :-
1. सामयिक वातावरण पर शादी का प्रथम स्थान आदि समाज ही को प्राप्त होना उचित और सर्वाधिकार माना जाएगा।
2.सामाजिक वातावरण की जागृति बिना अंतर सामाजिक बिना
सिर्फ अनुपलब्ध ही नही बल्कि राष्ट्रीय ख्यति पर भी कलंकित होती है।
3. सामयिक तथा सामाजिक प्रगति ही अंतरजातीय अथवा सामाजिक विवाह का लक्षण है।
4. वर्तमान आदि संस्कृति के लक्ष्य पर ही शादी का परिपक्व सम्भव और शुद्ध मालुम पड़ता है।
5. भिन्नता को समान स्तर पर लाने के लिए विषयी नियमावली के आधार पर सामाजिक कमिटि पर निर्भर करती है।
6. सकाड़ी ऑणादी (कलुषित शादी) सिर्फ अंतरजातीय विवाह का योग ही नहीं बल्कि चरित्रहीनता का द्योतक है।
7. धर्म और संस्कृति के महात्म्य की रक्षा के लिए अंतरजातीय नारी वर्ग पर ही विवाह लागु हो सकता है।
-: विषयी (जातिय का राजा) :-
1. सामाजिक नियमों तथा सांस्कृतिक व्यवस्या को स्वच्छ और सुदृढ़ रखने के लिए एक ‘विषयी राजा’ की आवश्यकता है।
2. आदि संस्कृति की जागृति तथा परिपक्व हित एक ‘जाति विषयी’ का रहना अनिवार्य है।
3. संचालन केन्द्रों की पुष्टि के लिए एक-एक पाड़ा विषयी का होना जरूरी है।
4. उपसंचालन केन्द्रों को कायम रखने के लिए एक-एक पाड़ा विषयी सकार्य स्वागत अनिवार्य है।
5. दोष मुताबिक छानबीन और बिचार विमर्श कर निपटारा किया जावे।
सम्पतिशाली व्यक्ति यथायोग समाज के दानी हो सकते है।
7. पंचतत्व व पंचभूतानुयित परिष्कार कार्य पांच तांबे की मुद्र से ही कार्यरूपेण किया जावे।
8. साधरणतः विषयी दान बीस रूपैये से सम्बंद्ध है।
9. भोज व्यवस्था पंच परित्राण के योग का हो ।
10. दोहरा-तेहरा कलुषित व्यक्ति दण्ड के भागी है।
11. परिकृष्त व्यक्ति समाज में अधिकारी हो सकते है। जन्म-जात (जन्म-संस्कार)
1. प्रसव के तीसरे दिन “नियर” (प्रथम कमान) से पिता कार्योपयोग माने जा सकते हैं।
2. प्रथम संस्कार से ही “सर-सिदुब” (तीर रखना) की संस्कृति कार्योपयोग किया जाए।
3. प्रसव के नौवें दिन शिशु की नाभी गिरने के बाद तबः-चाटु (नरता) का कार्यक्रम उचित है। और उसी दिन से माँ सिन्दुर दान को कर्मयोग करेगी।
4. नरता से 21वीं दिन ‘तिकिएड़ः’ (एक्कीसिया) अनिवार्य है।
5. कार्यक्रम का सम्मान अल्ता और सिन्दुर दान से बड़प्पन दिया जावे।
6. संस्कारित व्यक्ति ही इस संस्कार कार्यक्रम के भागी माने जा सकते हैं।
7. आदि संस्कृति के योग पर नामकरण का कार्य सम्पन्न उचित है।
8. यह जन्म उत्सव खूब शुद्धि और धूम-धाम से मनाना अति आवश्यक है।
9. समय और परिस्थिति के अनुसार ‘साखीसिर्पा’ (उपहार) शक्तिस्वरूप लेन-देन किया जा सकता है।
गोनोए गेरं (मरण संस्कार)
1. प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक प्राणी का संस्कारिक अधिकारी है।
2. प्रत्येक मानव, प्रत्येक मानव से संबंध रखता है।
3. खून-रंग का फर्क रखना असभ्यता है।
4. यथा सम्भव शीघ्रता से संस्कार व्यवस्था होना ही सभ्यता का अर्थ रखता है।
5. श्मशान स्थल किसी नियत स्थान पर और अगर गाँव से बाहर हो तो स्वास्थ्य और सभ्यता का निष्कलंक उद्देश्य है।
6. पुरातत्व विभाग के अनुसन्धानिक प्रमाण से संबंधित ‘षोरेदा दान’ (श्रद्धांजली) आदि संस्कृति ख्याति का विशेषता रखना संस्कृति को अमरत्व देना है।
7. शव का जंगा-दः (परिष्कार) मृतक आत्मा को संस्कृतिक रूप प्रदान करना अत्युक्ति है।
8. अनावश्यक कफन खर्च पर ध्यान देना भविष्य जीवन पर सहायक होना है।
9. आध्यात्म शांति की स्थापना सिर्फ, तिल-तोपा (दफन) पर और उसकी अशांति शव के जलाने पर होती है।
10. दफन की व्यवस्था सदा उत्तर-दक्षिण होना सहकारिता की भावना रखना है।
11. आध्यात्मिक संबंध रखने वाली रोवड केया (आत्म पुकार) की सिद्धि मानव संस्कृति की समृद्धि है।
12. आदिङ (इष्ट पुजा का स्थान) में आत्म पुकार अध्यात्म संतो का पियुष धारा गर्भ से सम्बंधित है।
13. पंचाइ (स्मारक पत्थर) को आदि शासकीय ऐतिहासिक उपयोग का गौरब को जिन्दा रखना हैं।
14. आत्मा शांति एवं पुनर्जन्म की विशेषता पर ‘दुल सुनुम’ (कब्र पर तेल डालना) अनिवार्य है।
15. श्मशान को संवारना भविष्य इतिहास की उज्ज्वल है।
हेरानम (पाहुनी)
1. समाज सुधार एवं जागृति हित आपसी परिचय तथा सहानुभुति का सुदृढ़ समयानुकूल पाहुन बनकर करना आवश्यक है।
2. अनाश्रित पिड़ितों को सांत्वना देने के लिए उचित सहायता की व्यवस्था ‘ओमजीङ्’ (पीड़ित सहाय) अत्यांत आवश्यक है।
3. दःसकम (वर-कन्या) के छानबीन कार्यक्रम पर सात मुट्टी अर्वा चावल युक्त, तीन प्राकृतिक पुरुष स्वरूप तीन व्यक्ति का आवागमन अत्याधुनिक माना गया है।
राँसा-रसिका (मनोविनोद)
1. संस्कृति युक्त वक्त, काल की मनोविनोद ही सभ्यता का रूप दिया जाता है।
2. नाट्य एवं संगीत कला मनोविनोद कार्य त्योहर के आधार पर सभ्यता का स्वरूप होता है।
3. रस वो रहस्य की विशेषता पर अर्थयुक्त संगीत अनिवार्य है।
4. अर्थरहित नाट्य कला सभ्यता के विरुद्ध है।
5. नाट्य एवं संगीत पर शास्त्रार्थ हो ।
6. मनोविनोद के दुरूपयोगी दण्डनीय साबित होगी।
7. जीवात्मा की उत्तेजना, शांति एवं शुद्धि के लिए यज्ञ, नाट्य कला तथा संगीत, सभ्यता सहित प्रतिद्वंदि से हो।
8. बेअवसर अथवा कमिटि के आवश्यकता का उचित आज्ञा बिना, मनोविनोद कार्यक्रिष्ट तथा घृणात्मक परिचय है।
9. समाज की परिष्कृति नाट्य तथा संगीत से ही संकेत किया जाए।
10. वर्तामन नर, नर से और नारी, नारी से ही हाथ मिलाकर मनोविाद करना सभ्यता का परिचय है।
11. नर-नरी का पारस्परिक आलिंगन अनुचित मजाकी सभ्यता के विरूद्ध है।
12. प्रत्येक अकड़ा वो अखाड़ा में भजन, नाट्य एवं सभ्यता पर संगीत अभ्यास अत्युक्ति है।
13. मनोविनोद का स्वर्णावसर मंगल तारा के अस्त से शुक्र तारा के उदय तक सभ्य संस्कृति का लक्ष्य है।
पिर्कल (नाटक)
1. संस्कृति की वृद्धि एवं समृद्धि तथा पुजारियों को अर्थानुसार जागृत कर पारस्परिक सहानुभूति के प्रति अभिनय आवश्यक है।
2. सांस्कृतिक कार्यक्रम की पुर्ति तया नाट्य संगीत का सद् व्यवहार के लिए स्थान-स्थान पर अभिनय होना परमावश्यक है।
3. अशिक्षित से उत्पन्न लाज और भय को हटाकर मानवता संचारण के निमित प्रत्येक संचालन केन्द्र में अभिनय जरूरी है।
4. जन साधारण में ढांढ़स, उत्साह, सहिष्णुता, एवं सच्चारिता की भावना उत्पन्न कराने के अभिनय में पात्र-पात्रा का भागीदार होना अनिवार्य है।
5. सहाकारिता की व्यवस्था पर नाट्य का होना अनिवार्य है।
6. अभिनय के सामानों के संग्रह हित चंदा आर्थिक सहायता अनिवार्य है।
7. पात्र-पात्राओं की मानसवृद्धि हित योग्यतानुसार उपहार वितरण अत्यंत आवश्यक है।
8. नायक अभिनायक में बाहरी सहायता ज्ञान बढ़ाने लिए हर किस्म की बोली, व्यवहार, अनुशासन एवं भाषा संस्कृति की शिक्षा देना नितान्त आवश्यक है।
9. कुपित वो कुभावना को अभिनय से पृथक रखा जावे।
पपादिर कुमुटि (शैक्षणिक समिति)
मानवीय मान्य बात है कि जब सर्प कुबुद्धि से अपने प्यारे मणि को खो देते है तो वह सर पठक कर आखिरी श्वांस गिनने लगता है। उसी तरह, जब कोई बिना विचारे समाज से अलग हो जाता है अथवा अपनी संस्कृति को भूल जाता है, वह कलंकित हो जाता है। क्योकि कहावत है जिसको अपनी भाषा, लिपि, संस्कृति नहीं है अथवा धर्म और समाज का लिखित सिद्धांत नहीं है, वह कहलाता है-
(1.) बिना सिंग और पुंछ वाला पशु।
(2.) घर-घर मांगने वाली सुन्दर भिखारिणी।
(3.) सड़े गलीज का कीड़ा
(4.) कुएँ का मेढक।
(5.) बंधा गोमी का कीड़ा इत्यादि।
क्योंकि वह ज्ञान से दूर हो जाता है और उस तरह हो जाता है ज्यों मौत आने पर लोमड़ी शहर की ओर दौडती है। इसी तरह से इस वैज्ञानिक दुनिया में मानवता, मानव समाज अथवा जीवात्मा की कसौटी ज्ञान ही है। अतः आज भारतीय जनतंत्र के बीच इसी ज्ञान की खोज में प्रत्येक इन्सान को अपनी भाषा, लिपि, एवं धनसंग्रह की आवश्यकता पड़ी है। स्वतः योजनाओं की सिद्धि में ज्ञान के उपार्जन के लिए शैक्षिक समिति का गठन करना पड़ा। उसी सिलसिले में एटेः तुर्तुङ पिटिका अखाडा (आदि सांस्कृति एवं विज्ञान संस्था) भी आज अपनी जागृति एवं विकास के लिए निम्न प्रकार से शैक्षिक समिति का गटन किया –
(1.) मॉडोको (मंदिर) पढ़ाई।
(2.) मोंडो (पाठशाला) पढ़ाई।
प्रथम प्रकार का शैक्षिक विभाग निम्न आधार पर स्थिर है-
(1.) एटे तुर्तुङ पिटिका अखाड़ा के सभी अनुयायियों को समान अधिकार है।
(2.) जो आदि समाज के लिए त्यागी हो।
(3.) जो कम से कम दो बच्चे के माता-पिता हो।
(4.) बत्तीस वर्ष की आयु को प्राप्त हो।
(5.) समान के आजीवन सदस्य, अविवाहित रूप में भी भागीदार हो सकते है।
(6.) अविवाहित नर-नारी इसका हकदार नहीं माने जाते है।
(7.) जो आदि संस्कृति एवं विज्ञान संस्थान के छ्वों नियमों को दृढ़ता पूर्वक आन्तरिक रूप दिया हो।
(8) पुजारी अथवा पुजारीयों के नियमावली से परिचित विश्वासी पात्र हो।
(9) माया विहिना के कट्टर उपासक हों।
(10) अध्यात्म रूपक पवित्रता के आदर्श हित सच्चरित्र से ज्ञान, ध्यान वो व्यान के जो प्रतिद्वंद्धि।
(11)
पंच से विश्वासी, पंच के विश्वासी हो।
(
12.) कुपित व्यक्ति किसी किस्म में इस पढ़ाई के भागीदार नहीं माने जा सकतें है।
(13)
सदस्य तिथि से जो लगातार पांच साल का आर्थिक सहायक हुआ हो।
(14.) जो वारङक्षिति प्रशिक्षण परीक्षा फल से युक्त हो।
(15)
जो आदि धर्म, समाज, संस्कृति का प्रशिक्षण प्राप्त किया हो। द्वितीय
प्रकार पर शैक्षणिक विभागीय कार्य की रूपरेखा
सरकारी सिलेबस पर आधारित है।
कल्याण विभाग
इस दलित वो गलित आदि समाज के उत्थान के लिए उर्ध्वलिखित विभागों पर भी हाथ बाँटाया है।
(1) धर्म, संस्कृति एवं समाजिक अनुसंधान विभाग।
(2) स्वस्य विभाग।
(3) सहकारिता विभाग ।
(4) कृषि विभाग
(5) गृह उधोग वो छपाई।
(6) नारी कल्याण विभाग
(क) कताई
(ख) विनाई
(ग) फुलवाई
(घ) बुनाई
(ङ) सिलाई
(च) सेवक-सेविका
(छ) धान कुटाई
(7) व्यापार वो व्यवसाय-इत्यादि ।