Maran bonga ka mahatva मरं वोङ्गा
Kol Samaj Marang bonga ka mahatva – हो समाज में मरं वोङ्गा की भी विशेष रूप से रोचक कथा है। मुख्यतः मानव सृष्टि के प्रथम चरण में लुकु दम्पति दोनों एक दिन एक चबुतरे पर बैठे थे। सारे जीव जन्तुओं ने आ कर दोनो को फूलमाला से सेवा सुश्रुषा कर रहें थे। उनके तीनों बच्चे माता-पिता के आदर सत्कार को देख कर आश्चर्य चकित हुए। तीनों बीरबेन्डेकर तयषुम, और बेड़ा कड़िया एक जगह बैठ कर सोचने लगे। माता पिता दोनों की सेवा तो हो रहा है, किन्तु हम लोगों का कब होगा। तीनों ने पिता के पास जाकर पूछने लगे। अपने बच्चों को देखकर और लुकु कोड़ा आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हें एक काम करना है कि दो लकड़ी ऐसा बनाए कि एक लकड़ी पर 12 गाँठ दूसरे में 7 गाँठ अर्थात बुःउ गनाई (छेदाकार) ऊँची, पर्वत के चोटी पर गाड़ देना है। जिसे पाकिलः कहा जाता है। एवं डेके दरू भी कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में हम दोनों उस लकड़ी पर पैर रखें और ऊपर को उड़ जायेगें तो तुम सभी कोई लकड़ी के नीचे ध्यान पूर्वक अर्पण आराधणा करने का प्रयास तुम सभी को करना है। आज्ञा पाकर वैसे ही चोटी पर गाड़ दिया गया।
तत्पश्चात दोनों उस लकड़ी के ऊपर खड़े हो कर बच्चों को शपथ देते हुए कहा कि विरवेन्डकर तुम को जंगल अधिकार दिया जा रहा है, जीव जन्तुएँ तेरे अधीन में रहेंगे तथा शासन सत्ता दिया जा रहा है और जीव जन्तुओं की ओर इशारा करते हुए कहा कि सभी जीव जन्तुओं को विरवेन्डकर के साथ आपस में शांति कायम रखने की आज्ञा दी। बेड़ा कड़िया को जल नदी तालाब गढ़ा की जिम्मेवारी है और तयषुम दोनो का सेवा सुश्रुषा का हकदार है इतना कहाः पश्चात् दोनों एक साथ ऊपर की ओर उड़ ‘कर गायब हुए। बच्चों ने हिर्ला एयं अपं किं हिर्ला वारड. दाड़े हिर्ला मड. बुरू हिला यह कह कर अपना कार्य संभाले।
नतीजा क्या था ? दोनों देव लोक चले गये और आखिर कारण दोनों मरंबोंगा तथा चनाला दिशुम मरंवोङ्गा का रूप ध् पारण किए। जब देता है तो सुख शांति और बिगाड़ता है तो दुःख तकलीफ का सामना करना पड़ता है। काम के आधार पर किलियों का नाम रखा गया है और जैसे किली नाम रखा गया वैसे ही अलग नाम से मरं वोंङग्म का अराधना की जाती है जैसे बिरूवा किली का बिर्रपन्हा मरं वोंग इया पुकरी इया वाँदेला इया चिन्डगी इया चाँडरा गिरूनगर चम्पा नगर से है। हेम्ब्रोम का हिसी चडु मरं वोंगा वगैरह-वगैरह है इसलिए सब हम एक हैं, कन्धे से कन्धे मिला कर चलना है।
इन्हीं दोनों के यादगार में पूजा अराधना किया जाता है। लेकिन विभाजित 32 पाटकों के नाम वंश गोत्र लेते हुए पूजा मनाया जाता है। “गो ते सौ ते पेयाय ते पत्तोर ते डोमते डुलिया ते गाँसी ते मछुआ ते, धोवाते वरान्डते ते कुंकल ते कमार ते मोची ते चमार ते अटीकर पटिकर ते इत्यादि-इत्यादि नाम ले कर 32 पाटकों का नाम लिया जाता है। नीचे संस्कृति शब्दों से साफ प्रतीत होता है।
“हिसी षिर्मा दोंसी षिर्मा होटा दिरिं दलपा ते पप्परी रम्वा पप्परी चौली रीलेन चिडा लेन ते हगा ताए ते कुटुम ताए ते हल मुन्डु रा मुन्डु हम तन मेनोः” 32 पाटकें जो मुख्यतः उनका नाम नीचे दिया जा रहा है
(1) मुटुकन ओते मुटुकन
(2) सेन्तला-सन्ताल
(3) हो (कोल)
(4) वीर भूमिज
(5) मुन्डा
(6)उराँव
(7) कड़िया
(8) बतुड़ि
(9) गौड़ गोप
(10) पेंयाय, पान-पातोर-तांती
(11) कमार-लोहार
(12) कुंकल-कुम्हार
(13) डोम
(14) घाँसी
(15) महली
(16) बरान्डी
(17) धोवा-धोबी
(18) जड़वा-कुरमी
(19) बोष्टम
(20) जोम सरअः बीरहोड़
(21) गोंड दूरवा नायक
(22) मोची-चमार
(23) जुहांड.
(24) तोसा
(25) महतो
(26) सेकरा-टिन टिरी
(27) तमड़िया
(28) जुगी
(29) सतुवा-सोनार
(30) पटिकर-चित्रकार
(31) सँवर-सोवर
(३१) भुझ्याँ
ये कोल वंश आदिवासी हैं किसी कारण वश विभाजित हो कर वे अपने समाज बना लिए तात्पर्य यह है कि जनसंख्या वृद्धि हो कर परिवार बनता, कई परिवार मिला के समाज बनता वही समाज आगे चल कर जातियता गोत्रता बनता है। ये लोग भारत के कोने कोने में पाये जाते हैं। – अपनी संस्कृति अशिक्षित के कारण अपने मूल तत्व को भूल गये अथवा अन्य किसी शिक्षित वर्गों के पक्ष में रहकर जीवन यापन कर रहें हैं। जो छोटे-छोटे जाति समाज विभागों में बाँटे गये हैं। भारत के जन गणना में पाये जाते हैं। जो संविधान के पन्नों को देखने से पाये जाते हैं। जो भी हो, चर्चा करने की आवश्यकता नहीं; किन्तु “बहुजन समाज” के अन्तर्गत आते हैं तथा कहलाये जाते हैं बिल्कुल सत्य है। यदि देखना हो तो “दोस्तर शहर” पुस्तक में विशेष रूप से किस प्रकार से किलियों का विभाग विस्तार हुआ, पा सकतें है।
स्रोत – कोल हो’ संस्कृति(दोष्तुर) दर्पण